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सत्य और दुर्बलताएँ
सत्य के सम्बन्ध में कुछ बातें आपके सामने कही जा चुकी हैं । फिर भी वह जीवन का सत्य इतना विराट है कि उसे हमारा चिन्तन नापना चाहे, तो नाप नहीं सकता है। वाणी की तो बात ही क्या है ? उस बेचारी की तो शक्ति ही कितनी है? वह तो चिन्तन के साथ चलती-चलती ही लड़खड़ा जाती है। फिर भी हमारे पास किसी भी वस्तु या शक्ति के सम्बन्ध में विचार करने का और कोई साधन नहीं है। अतएव चिन्तन और वाणी की सीमा में रहकर ही हमें कुछ कहना है।
पहले बतलाया जा चुका है कि सत्य क्या है ? सत्य वाणी या बोलने का ही सत्य नहीं है। अलबत्ता, वाणी का सत्य भी हमारे जीवन का एक अंग है और साधना का मार्ग है और हमारे महापुरूषों ने उसके सम्बन्ध में बहुत-कुछ कहा है, उसका आचरण भी किया है और उसके द्वारा जीवन की गुत्थियों को भी सुलझाया है, किन्तु वाणी के सत्य में प्राण डालने वाला मन का सत्य है । मन का सत्य निकल जाता है, तो कोरा वाणी का सत्य निष्प्राण हो जाता है । वह सत्य, सत्य नहीं रहता। ... हमारा जीवन समष्टि का जीवन है । उसके ऊपर समाज और राष्ट्र का उत्तरदायित्व है और सम्पूर्ण विश्व का उत्तरदायित्व है। परन्तु उसको जिस विराट सत्य के लिए चलना चाहिए था, वह वहाँ से झटक गया और केवल शब्दों के सत्य पर अटक रहा। समझ लिया गया कि सत्य की इतिश्री हो गई, समग्रता आ गई और सत्य की साधना पूर्णता पर पहुंच गई। इस प्रकार अपूर्णता को पूर्णता समझ लिया गया और परिणाम यह हुआ कि जीवन में अनेक भूलें प्रवेश कर गईं।
हाँ, तो सचाई यह है कि वाणी का सत्य ही सम्पूर्ण सत्य नहीं है। जहाँ हम सोचते हैं; बोलते हैं या जीवन की कोई भी प्रवृत्ति करते हैं, सर्वत्र जीवन के सामने सत्य खड़ा होना चाहिए। जिस विचार, आचार और उच्चार के सामने सत्य नहीं, वह विचार, विचार नहीं, आचार, आचार नहीं, और उच्चार, उच्चार नहीं।
शास्त्रकारों ने सत्य के विषय में बड़ी-बड़ी बातें कही हैं । वे इतनी बड़ी हैं कि हम उन्हें काल्पनिक समझने लगते हैं। किन्तु वास्तव में वे ऐसी नहीं कि हो ही न सकती
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