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________________ सत्य दर्शन/७३ चोर चुराई तूंबड़ी, जल में दावी जाय । वह दाबे वह ऊभरे, पाप छिपेगा नाय ॥ "किसी चोर ने तूंबी चुरा ली । वह उसे छिपाने के लिए भागा। जब कोई ठीक जगह नहीं मिली तो सोचा-तलैया में जाकर दबा दूं। वह तलैया के किनारे जाकर तूंबी को दाब-दाब पर छोड़ना चाहता हूँ, परन्तु वह हाथ के साथ-ही-साथ ऊपर उठ आती - इसका अभिप्राय यह है कि कर्म तो हमको नीचे दबाकर ले जाते हैं, किन्तु हम विचारों की छलाँग मार कर ऊपर आ जाते हैं। यह उदाहरण आज २५०० वर्ष का पुराना हो चुका है, किन्तु जब राष्ट्रपतिजी ने सुना, तो वे हर्ष से गद्गद हो गए। यह एक सुन्दर दार्शनिक दृष्टान्त है। __ हाँ, तो तंबी पर मिट्टी का लेप लगा दिया और उसे पानी में छोड़ दिया, तो वह नीचे बैठ गई। किन्तु ज्यों ही उसके बन्धन गले कि वह क्षण भर भी नीचे नहीं रहने वाली है। उसका स्वभाव ऊँचे उठने का है। इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव भी ऊपर उठने का, ऊर्ध्वगमन करने का है। जब तक कर्मों के बन्धन रहेंगे, तभी तक वह नीचे दबी रहेगी और ज्यों ही बन्धनों से मुक्त होगी, झट ऊपर आ जाएगी। इस प्रकार यह मत कहिए कि जब आत्मा मुक्त हो जाती है, तब मोक्ष में जाती है। वास्तव में आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है, अतएव जब वह मुक्त होती है, कर्मों के लेप से छूट जाती है, तब ऊर्ध्वगमन करती है। __ भगवान् महावीर से कदाचित पूछा जाए कि आप तो ऊपर जा रहे थे, फिर जाते-जाते बीच में ही क्यों अटक गए? तो इस प्रश्न का उत्तर यही मिलेगा कि-हम तो ऊपर ही ऊपर जाते, ऊपर जाना हमारा स्वभाव ही है, किन्तु जहाँ रुक गए, वहाँ से आगे जाने का साधन ही नहीं है । धर्मास्तिकाय की सहायता नहीं मिलती है। __ मछली से पूछो कि तैरते-तैरते तू किनारे तक आ पहुँची है, तो और आगे क्यों नहीं जाती? क्या आगे बढ़ने की शक्ति तुझ में नहीं रही? वह कहती है-आगे जाने की शक्ति है, किन्तु पानी हो, तो आगे जाऊँ। अभिप्राय यह है कि गति का बाह्य निमित्त धर्मास्तिकाय है । वही जीवों और पुद्गलों की गति में सहायक होता है । वह जहाँ तक है, वहाँ तक गति होती है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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