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७४ / सत्य दर्शन
जहाँ उसका अभाव है, वहाँ गति का भी अभाव है। यही कारण है कि मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करते-करते लोक के अग्रभाग तक पहुँचते हैं और फिर वहीं अटक जाते
भगवान महावीर यों लोकाग्र भाग में जाने के लिए नहीं गए। वहाँ रहने के लिए रवाना नहीं हुए। उन्होंने यह नहीं सोचा कि अब मैं मोक्ष में जाकर रहूँगा। वहाँ कोई पड़ाव नहीं पड़ा है। वे तो अनन्त-अनन्त, अविराम यात्रा पर चले थे, पर जब गतिक्रिया का साधन नहीं रहा, तो वहीं रह गए।
एक भाई ने प्रश्न किया-वे ऊपर नहीं जा सकते थे, तो इधर-उधर ही क्यों नहीं चले गए ? अर्थात् आगे अलोक में जाने के लिए धर्मास्तिकाय नहीं था लो न सही, लोक के अन्दर तो है और वे इधर-उधर ही क्यों नहीं घूम लेते ? मगर मुक्त जीव इधर-उधर नहीं घुमते हैं । मैं कह चुका हूँ कि आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का है, अतएव वह ऊपर तो जा सकती है, किन्तु वह इधर-उधर नहीं घूम सकती। मुक्त जीव का स्वभाव तिर्छा गमन करने का नहीं है। तिर्छा जाया जाए, तो कर्मों की प्रेरणा से जाया जाता है, मुक्त जीव कर्मों से रहित हैं, तो वे तिर्छ गमन कैसे करेंगे? अतएव वे जहाँ रुक गए, वहीं रुक गए।
- अच्छा, इतने विवेचन की भूमिका को ध्यान में रखते हुए अब मूल विषय पर आइए। मैंने कहा था कि-अहिंसा, सत्य, क्षमा, दया आदि जो भी आत्मा के निज गुण हैं, वे एक-एक बुराई को नष्ट करके आत्मा को अपने असली स्वरूप में पहुँचाते हैं। इसका अर्थ यह है कि-क्रोध, मान, माया, लोभ, असत्य आदि विकार जितनी मात्रा में आत्मा में रहेंगे, उतनी ही मात्रा में हम आत्मा से बाहर रहेंगे और संसार की परिणति में रहेंगे। और जितने-जितने अंशों में हम क्षमा, अहिंसा, सत्व आदि की ओर जाते हैं, उतने-उतने' अपने स्वभाव की ओर जाते हैं।
___ मैंने कहा था कि-अहिंसा, अहिंसा के लिए और सत्य, सत्य के लिए होना चाहिए। इसका आशय यह है कि अहिंसा, सत्य आदि का आचरण आत्मा को उत्कृष्ट भूमिका पर पहुँचाने के लिए होना चाहिए । इस लोक या परलोक-सम्बन्धी भय से बचने के लिए अथवा निन्दा से बचने के लिए अहिंसा और सत्य का आचरण नहीं करना है। हमें तो सिर्फ अपनी आत्मा का ही भय होना चाहिए कि कहीं आत्मा दूषित न . हो जाए । इस दृष्टिकोण से विचार करने पर आत्मा का कल्याण हो जाता है।
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