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________________ ४४ / सत्य दर्शन बाँध दी ; मगर बैठने से रहा। बाँधने को तो बाँध दी, परन्तु सोचने लगा- "इसका अब क्या किया जाए ? उस पर सवार होकर निकलूँगा तो पकड़ा जाऊँगा। सवारी न करूँ तो यह मेरे किस काम की है?" आखिर उसने घोड़ी को सिक्के के रूप में बदल लेने का निश्चय किया। किसी जगह पशुओं का मेला लगता था। चोर उस घोड़ी को लेकर वहाँ गया। वह उसे मेले के बीच में रखकर किनारे-किनारे फिरने लगा और जो भी मिलता, उसी से पूछता - "क्या घोड़ी खरीदनी है ?" एक आदमी की निगाह बड़ी पैनी थी। उसने भाँप लिया कि यह चोर है और इसी कारण इतनी सुन्दर घोड़ी को किनारे पर लेकर चल रहा है। अवश्य यह घोड़ी चोरी की होनी चाहिए। इस प्रकार सोचकर वह उसके आस आया और बोला- "घोड़ी किस की है ?" चोर ने कहा-मेरी है । 'क्या बेचोगे इसको ?' 'हाँ, बेचने के लिए ही तो लाया हूँ।' 'अच्छा, क्या कीमत है इसकी ?' यह प्रश्न सुनकर चोर पशोपेश में पड़ गया। घोड़ी उसकी खरीदी हुई नहीं थी और न उसके पुरखाओं ने ही ऐसी घोड़ी कभी खरीदी थी। वह घोड़ी की उचित कीमत बतलाने में असमर्थ हो गया। मगर चुप रहने से भी काम नहीं चल सकता था। अतएव उसने कुछ सोच-विचार कर एक कीमत बतला दी । कीमत सुनकर खरीददार समझ गया कि इसके बाप-दादाओं ने भी कभी घोड़ी नहीं रखी है। यह वास्तव में चोरी का माल है। फिर भी खरीददार ने गंभीरता से कहा - " कीमत तो बहुत ज्यादा है, मगर घोड़ी बहुत सुन्दर है, अतएव मैं कीमत की परवाह नहीं करता। लेकिन मैं देखना चाहता हूँ कि जैसी यह देखने में सुन्दर है, वैसी चाल में भी सुन्दर है या नहीं ?" चोर ने कहा- " अच्छी बात है। सवारी करके चाल देख लीजिए । खरीददार ने अपनी गुड़गुड़ी (हुक्का) चोर को देकर कहा - "इसे आप रखिए और मैं घोड़ी की परीक्षा कर लेता हूँ ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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