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________________ सत्य दर्शन/४३ रहने के बाद भी भगवान को भगवान के रूप में नहीं पाया और घोषणा की कि मैं ही सच्चा हूँ और भगवान् झूठे हैं । ___ अस्तु, वास्तव में मनुष्य का चिन्तन ही मुख्य है। भगवान् का जो चिन्तन है और वाणी है, सो अपने-आप में सत्य है और तथ्य है। परन्तु हे साधक ! तेरे लिए सत्य-तथ्य वह तब होगा, जब तू अपने मन को धोकर साफ कर लेगा। तेरा मन सत्य को ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं, तो संसार के जो भी शास्त्र हैं, सभी तेरे लिए सत्य का रूप धारण कर लेंगे। तू शास्त्रों का बँटवारा करके चल रहा है, सो ठीक है ; भगर सब से बड़ी बात तोयही है कि तेरे भीतर सत्य विद्यमान है या नहीं ? यदि तेरे भीतर सत्य विद्यमान है, तो तुझे संसार में भी सत्य मिलेगा। अगर तेरे भीतर सत्य न होगा, तो तुझे कहीं भी सत्य की प्राप्ति न हो सकेगी, समग्र संसार तेरे लिए असत्य बन जाएगा। __ संसार के पदार्थ तो चक्कर काटते ही रहते हैं। उनमें शास्त्र, साधु और गुरु वगैरह भी हैं और वे फिल्म की तरह आ रहे हैं और जा रहे हैं । वे अपने-आप में कोई पाप या पुण्य नहीं बिखेरते जाते हैं । पदार्थों से पाप और पुण्य नहीं बिखरता है, किन्तु उन शास्त्रों या पदार्थों को देखने के बाद जो शुभ या अशुभ वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, वही हमारे मन को प्रभावित करती रहती हैं। किसी शास्त्र के अध्ययन के पश्चात् या सत्पुरुष के दर्शन के बाद मन में जब शुभ वृत्तियाँ जागती हैं, उस समय हमारा मन पुण्य का उपार्जन करता है, पुण्यमय बन जाता है। और उसी पदार्थ से किसी दूसरे के मन में यदि, घृणा, द्वेष और अहंकार जागता है और वह बुरी वृत्तियों को ग्रहण कर लेता है, तो वह पाप का संग्रह कर लेता है। वह अपने जीवन को अपने-आप में बुरे रूप में ढाल लेता है। __जैनधर्म ने एक बहुत बड़ी बात की है। वह किसी भी स्थूल पदार्थ, शास्त्र और भगवान के रूप में सत्य और असत्य का निर्णय करने को नहीं चला है, वरन वह साधक की अपनी भूमिका में से ही निर्णय करने चला है। जिसे सत्य की दृष्टि प्राप्त है, वह गुरु से सत्य को ग्रहण कर सकेगा और यदि दृष्टि में असत्य है, तो गुरु से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। इस प्रकार सब से पहले अपनी भूमिका तैयार करनी है। भूमिका तैयार न होगी, तो कुछ न होगा। घोड़ी की कीमत क्या : एक चोर कहीं से बढ़िया और सुन्दर घोड़ी चुरा लाया। उसने वह लाकर घर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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