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________________ सत्य दर्शन/४५ गुड़गुड़ी हाथ में आई, तो चोर के मन में विश्वास हो गया। खरीददार घोड़ी की पीठ पर सवार हुआ । ज्यों ही उसने ऐड़ लगाई कि घोड़ी हवा से बातें करने लगी। चोर पीछे-पीछे भागा। खरीददार ने उससे कहा-"क्यों भागकर आता है ? यह घोड़ी तेरी नहीं है। यों ही मालिक बना फिरता है । खबरदार, जो पीछे आया ।" चोर के घर चोरी हो जाए, तो बेचारा पुकारने से भी रहा। आखिर वह गुड़गुड़ी (हुक्का) लेकर, अपना-सा मुँह लिए घर लौट आया। पड़ोस वालों ने पूछा-"लौट आए ? घोड़ी कितने में बेची ?" उसने मन मसोस कर कहा--"जितने में लाए थे, उतने में ही बेच आए।'' पूछा गया "नफे में क्या लाए ?" चोर ने उत्तर दिया-"यह गुड़गुड़ी। घोड़ी तो जैसी आई थी, वैसी ही चली गई, कलेजा जलाने के लिए गुड़गुड़ी हाथ में रह गई ।" आचार्यों ने यह रूपक बतलाया है। अभिप्राय यह है कि संसार के पदार्थ तो जैसे आते हैं, वैसे ही चले जाते हैं। वे अपने-आप में कोई नफा-नुकसान नहीं रखते। इन्सान की जो भावनाएँ हैं, उन्हीं से पुण्य का नफा और पाप का नुकसान होता है। मनुष्य क्या लेकर यहाँ आया है ? और जब यहाँ से जाएगा, तो क्या लेकर जाएगा? सब-कुछ यहीं रखकर चला जाएगा। परन्तु अपनी भली या बुरी वृत्तियों के संस्कार अवश्य साथ जाएँगे। वृत्तियाँ अच्छी रही हैं, तो उनके द्वारा पुण्य का महान् प्रकाश प्राप्त हो जाता है, और यदि उसकी वृत्तियों में घृणा, द्वेष, ममता, क्रोध, मान, माया और लोभ रहे हैं, तो उसे पाप के अंधकार में विलीन होना पड़ेगा। मतलब यह है कि संसार के पदार्थ तो आते और जाते रहते हैं, उनसे हमारा कोई बनाव-बिगाड़ नहीं होता, उन पदार्थों के प्रति हमारी जो भावनाएँ होती हैं, उन्हीं से शुभ या अशुभ फल की प्राप्ति होती है। भगवान महावीर ने कहा है न काम-भोगा समयं उवेंति, न यावि भोगा विगई उवेइ । जे तप्पओसी य परिग्गही अ, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥ -उत्तराध्ययन, ३२/१०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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