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________________ ३८ / सत्य दर्शन होना चाहिए, विचार और मन्थन होना चाहिए। जब ज्ञान जाग उठता है और उसकी रोशनी में बोला जाता है, तभी वह बोलना सत्य समझा जा सकता है, अन्यथा असत्य होता है। तात्पर्य यह है कि जिसकी दृष्टि में मिथ्यात्त्व की मलीनता है और अज्ञान का घोर अंधकार छाया है, उसकी अहिंसा वास्तव में अहिंसा नहीं है, और उसका सत्य वास्तव में सत्य नहीं है। उसका ऊपरी व्यवहार कितना ही भला क्यों न दिखाई दे, परन्तु वह अन्तर से उद्भूत विवेक-प्रसूत सदाचार की कोटि में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। पहले विवेक की भूमिका आनी चाहिए और बाद में आचरण की भूमिका आनी चाहिए । भगवान् महावीर ने कहा है पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्व-संजए। अन्नाणी किं काही, किं वा नाही सेय य पावगं ॥ दशवैकालिक, ४/१० अर्थात्-"पहले ज्ञान है, विवेक है और विचार है । ज्ञान का प्रकाश जब जगमगाता है, तभी आचरण आता है। बेचारा अज्ञानी क्या कर सकता है ? उसे श्रेय का कैसे पता लगेगा और पाप का कैस पता चलेगा? वह धर्म और अधर्म को किस प्रकार समझ सकेगा?" इस प्रकार हमारी सैद्धान्तिक भूमिका निश्चित हो चुकी है कि व्यवहार में हम कुछ भी कहते रहें. किन्तु वास्तव में सत्य की पृष्ठभूमि में सत्य होना चाहिए। सत्य के पीछे लोभ, लालच और वासना की भावनाएँ नहीं होनी चाहिए । जहाँ क्रोध, मान, माया, लोभ और वासना की विद्यमानता है और मुँह से सत्य बोला जा रहा है, तो आगम उस सत्य को स्पष्ट शब्दों में असत्य ही करार देता है। भगवान महावीर कहते हैं तहेव काणं काणे ति, पंडगं पंडगे ति य । वाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए । -दशवैकालिक, ७/१२ दुर्भाग्य से कोई मनुष्य काणा या अंधा हो गया है। उसे लोग एकाक्षी या अंधा कहते हैं। ऐसा कहना लौकिक दृष्टि से असत्य नहीं माना जाता, क्योंकि वह वास्तव में काणा या अंधा है और उसे वैसा ही कह दिया गया है। किन्तु भगवान् महावीर की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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