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सत्य दर्शन / ३७
अंधकार है और गहरा अंधकार है। इतना अंधकार है कि उस प्राणी ने कदाचित् ऊँचे घराने में भी जन्म ले लिया है, तो भी सत्य उसके पास नहीं फटक सकता। वह तो तभी आएगा, जब उसे वह निमन्त्रण देगा। ऐसे प्राणी को, जो मिथ्यात्त्व और अज्ञान में पड़ा है, सत्य की उपलब्धि नहीं हुई है। उसने आत्मा को और परमात्मा को नहीं पहचाना है । वह कदाचित् सत्य भी बोल रहा है, तो भी उसका सत्य, सत्य नहीं है। जनता की भाषा भले ही कहे कि वह सत्य बोल रहा है, परन्तु आगम की भाषा तो यही कहती है कि वह सत्य नहीं बोल रहा है।
एक उदाहरण लीजिए। कोई शराबी शराब पीकर बेहोश हो गया है और उस हालत में भी वह पिता को पिता और पुत्र को पुत्र कहता है और दोनों के साथ यथायोग्य व्यवहार भी करता है। किन्तु नशे की हालत में भी वह ऐसा कह रहा है, तो क्या उसका कहना सत्य है ? नशे की बेहोशी में वह पिता को पिता और पुत्र को पुत्र कहता है। ऊपरी तौर पर उसका कहना सत्य मालूम होता है, फिर भी आप कहते हैं कि यह अपने आपे में नहीं है, यह होश में नहीं है और इसका दिमाग दुरुस्त नहीं है और इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। तो आप ऐसा क्यों कहते हैं ? उसके सत्य- भाषण को भी आप सत्य के रूप में क्यों नहीं स्वीकार करते ?
एक पागल आदमी है। उसका दिमाग खराब हो चुका है। उसे बाँध कर रखा गया है। किन्तु कभी-कभी किसी के आने पर और पूछने पर वह ठीक-ठीक बात कर देता है। आने वाला कहता है-"यह तो भला आदमी है, समझदार है। इसे क्यों बाँध रखा है ?" आप कहते हैं- यह जो बोल रहा है, सो पागलपन की हालत में ही बोल रहा है। क्योंकि यह पागल अभी प्रेम से बातें कर रहा है और अभी-अभी मारने को तैयार जाता है। वह एक क्षण पिता को पिता कहता है, तो दूसरे ही क्षण पिता को पुत्र भी कह देता है। उसके दिमाग में पिता और पुत्र के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट कल्पना नहीं है, विवेक नहीं है। वह अपनी कल्पना की लहरों में बह रहा है। भाग्य भरोसे जो कुछ भी मुँह से निकल गया.. सो निकल गया । वह स्वयं ही नहीं समझता है कि मैं क्या कह रहा था और अब 'क्या कह रहा हूँ और मुझे क्या कहना चाहिए।
ऐसी स्थिति में उसके मुँह से निकली हुई सत्य बात को भी आप प्रामाणिक मानने के लिए तैयार नहीं हैं। इसका कारण यही हैं कि बोलने के पीछे भी चिन्तन और विवेक
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