SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य दर्शन / ३९ मर्मज्ञ दृष्टि बतलाती है कि अगर काणे को काणा और अंधे को अंधा कह दिया गया है, तो वह भी अपने-आप में असत्य है, और ऐसा कहने का आपको अधिकार नहीं है। अभिप्राय यह है कि आप जब अंधे को अंधा और काणे को काणा कहते हैं, तो सत्य का उद्घाटन करना आपका अभिप्राय नहीं होता। आपके कथन में व्यंग्य और घृणा मिली होती है, आप उसके चित्त पर चोट करके प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं, उसकी हीनता का उसे बोध करा कर अपनी महत्ता का अनुभव करने की आसुरी वृत्ति आपके अन्तस्तल में उछालें मार रही होती है। आप उसे चिढ़ाना चाहते हैं, खिझाना चाहते हैं । यह दुष्ट मनोवृत्ति है। जहाँ इस प्रकार की दुष्ट मनोवृत्ति है, वहाँ अंधे को अंधा, काणे को काणा और रोगी को रोगी कहना-ऊपरी तौर पर सत्य होते हुए भी सत्य नहीं है, आगम की भाषा में यह असत्य है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अंधे को अंधा और काणे को काणा कहना तथ्य हो सकता है, परन्तु सत्य नहीं हो सकता। यहाँ तथ्य और सत्य के अभिप्राय में जो अन्तर किया गया है, उसे समझ लेना चाहिए। जो बात जैसी है, उसे वैसी ही कह देना, फिर चाहे उसका आधार कुछ भी हो, किसी भी अभिप्राय से वह कही गई हो और उसका फल भी चाहे जो हो, उसे तथ्य कहेंगे। तथ्य कभी हितकर हो सकता है और कभी अहितकर भी। जब वह अहितकर होता है और उसमें हिंसा एवं द्वेष का विष मिश्रित होता है, तो वह असत्य बन जाता है। इस सब विवेचन का अभिप्राय यह हुआ कि मन का सत्य आना चाहिए और मन का सत्य जब आ जाता है, तभी वाणी का सत्य आता है। सिद्धान्त की चर्चा चलती है। अनेक व्यक्ति उस चर्चा में सम्मिलित हैं। उनमें कोई साधु या श्रावक भी है। चर्चा के परिणाम-स्वरूप उसकी एक धारणा बन जाती है। मान लीजिए कि उसने जो धारणा बनाई है, वह सही नहीं, गलत है। परन्तु उस गलत धारणा को वह सही ही समझता है और सही मानकर ही उसका चिन्तन और मनन करता है। उसे कोई ज्ञानी और कोई साधक इतना ऊँचा नहीं मिला, जो उसकी गलत धारणा को तोड़ दे और वह अपने विचारों का समर्थन कर रहा है। ऐसी स्थिति में आप उसे सम्यग्दृष्टि कहेंगे या मिथ्यादृष्टि ? आज की स्थिति में तो इस प्रश्न का उत्तर सरल है। आप झट कह देते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy