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________________ सत्य दर्शन/३३ है, तो ऐसी स्थिति में असत्य तो असत्य रहता ही है, परन्तु यदि वाणी से सत्य भी बोल दिया जाए, तो वह भी जैनधर्म की भाषा में, असत्य ही कहा जाता है। यदि मन में माया है, छल-कपट और धोखा है और उस स्थिति में कोई अटपटा-सा शब्द तैयार कर लिया गया, जिसका यह आशय भी हो सकता है और दूसरा अभिप्राय भी निकाला जा सकता है, तो वह सत्य भी असत्य की श्रेणी में है। मनुष्य जब लोभ-लालच में फँस जाता है, वासना के विष से मूर्च्छित हो जाता है और अपने जीवन के महत्त्व को भूल जाता है और जीवन की पवित्रता का स्मरण नहीं रहता है, तब उसे विवेक नहीं रहता कि वह साधु है या गृहस्थ है ? वह नहीं सोच पाता कि अगर मैं गृहस्थ हूँ तो गृहस्थ की भूमिका भी संसार को लूटने की नहीं है और संसार में डाका डालने के लिए ही मेरा जन्म नहीं हुआ है। मनुष्य संसार से लेने ही लेने के लिए नहीं जन्मा है, किन्तु मेरा जन्म संसार को कुछ देने के लिए भी हुआ है-संसार की सेवा के लिए भी हुआ है । जो कुछ मैंने पाया है, उसमें मेरा भी अधिकार है और समाज तथा देश का भी अधिकार है। जब तक सँभाल कर रख रहा हूँ, रख रहा हूँ और जब देश को तथा समाज को जरूरत होगी, तो कर्तव्य समझ कर खुशी से दूंगा। ___मनुष्य की इस प्रकार की मनोवृत्ति उसके मन को विशाल एवं विराट बना देती है। जिसके मन में ऐसी उदार भावना रहती है, उसके मन में ईश्वरीय प्रकाश चमकता रहता है। और ऐसा भला आदमी जिस परिवार में रहता है, वह परिवार फूला-फला रहता है । जिस समाज में ऐसे उदार मनुष्य विद्यमान रहते हैं, वह समाज जीता-जागता समाज है । जिस देश में ऐसे मनुष्य उत्पन्न होंगे, उस देश की सुख-समृद्धि फूलती-फलती रहेगी। ___ जब तक ननुष्य के मन में उदारता बनी रहती है, उसे लोभ नहीं घेरता है। उत्पन्न होते हुए लोभ से वह टकराता रहता है, संघर्ष करता है और उस जहर को अन्दर नहीं आने देता है। जब तक वह मनुष्य बना रहता है और उदारता की पूजा करता है, तभी तक उसकी उदारता सत्य है और क्षमा भी सत्य है। क्षमा करना भी सत्य का आचरण करना है। किसी में निरभिमानता है और सेवा की भावना है, अर्थात् वह जनता के सामने नम्र सेवक के रूप में पहुँचता है, तो उसकी नम्रता भी सत्य है। जो संसार की सेवा के लिए नम्र बन कर चल रहा है, वह सत्य का ही आचरण कर रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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