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३४/ सत्य दर्शन
इसी प्रकार जो सरलता के मार्ग की ओर जिन्दगी ले जाता है, जिसका जीवन खुला हुआ है, स्पष्ट है-चाहे कोई भी देख ले, दिन में या रात में परख ले ; चाहे एकान्त में परखे, चाहे हजार आदमियों में परखे, उसकी जिन्दगी वह जिन्दगी है कि अकेले में रह रहा है, तो भी वही काम कर रहा है और हजारों के बीच में रह रहा है, तो भी वही काम कर रहा है। भगवान् महावीर ने कहा है
दिया वा, राओ वा, परिसागओ वा, सुत्तं वा, जागरमाणे वा ।
-दशवैकालिक, ४ "तू अकेला है और तूझे कोई देखने वाला नहीं है, पहचानने वाला नहीं है, तुझे गिनने के लिए कोई उँगली उठाने वाला नहीं है, तो तू क्यों सोचता है कि ऐसा या वैसा क्यों न कर लूँ ; यहाँ कौन देखने बैठा है। अरे, सत्य तेरे आचरण के लिए है, तेरी बीमारी को दूर करने के लिए है। इसलिए तू अकेला बैठा है, तो भी उस सत्य की पूजा कर और हजारों की सभा में बैठा है, तो भी उसी सत्य का अनुसरण कर। यदि लाखों
और करोड़ों की संख्या में जनता बैठी है, तो उसे देखकर तुझे अपनी राह नहीं बदलनी है। यह क्या कि जनता की आँखें तुझे घूरने लगें, तो तू राह बदल दे, सत्य का मार्ग बदल दे। नहीं, तुझे सत्य की ही ओर चलना है और प्रत्येक परिस्थिति में सत्य ही तेरा उपास्य होना चाहिए।"
इसी प्रकार तू गाँव में है, चाहे नगर में है, सत्य पर ही चल । जब तू सो रहा है, तब भी सत्य का मार्ग पकड़ और जब जाग रहा है, तब भी सचाई को पकड़े रह । सोना और जागना भी तेरे अधीन होने चाहिए।
__ मनुष्य कहता है-"जब मैं जागता हूँ तो जीवन में रहता हूँ और जीवन की बागडोर अपने हाथ में पकड़े रखता हूँ, किन्तु जब सो गया तो बस सो गया। उस समय मेरे जीवन की बागडोर मेरे हाथ में नहीं रहती । उस समय मेरा क्या उत्तरदायित्व है ?" किन्तु जैनधर्म जीवन की बड़ी कठोर आलोचना प्रस्तुत करता है। वह कहता है-''नहीं, तुझे वह उत्तरदायित्व भी ग्रहण करना होगा। जब तू जागा हुआ है तब अपने जीवन की लगाम अपने हाथ में रख और जब सो रहा है, तब भी ढीली न छोड़। सोए हुए मन में भी जो छल-कपट, धोखा चल रहा है, अहंकार जाग रहा है, वह
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