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२४ / सत्य दर्शन जितने कदम तुम्हारे अहिंसा पर चल रहे हैं, उतने ही सत्य पर भी चलने चाहिए। सत्य को ठुकरा कर, अपमानित करके, अहिंसा का सत्कार और सम्मान नहीं किया जा सकता। अतएव अहिंसा की साधना के लिए सत्य की, और सत्य की साधना के लिए अहिंसा की उपासना आवश्यक है।
कोई आदमी आपको मिश्री खाने के लिए कहता है। जब मिश्री देने लगता है तो कहता है-“लीजिए, यह मिश्री तो है मगर मीठी नहीं है !" आप सोच-विचार में पड़ जाएँगे, आखिर मिश्री है और मिठास उसमें नहीं है, इसका क्या अर्थ है ? आग हैं, किन्तु उष्णता उसमें नहीं है तो वह आग कैसी ? वह फूल लीजिए, किन्तु इसमें दुर्गन्ध है, यह सुनकर क्या आप नहीं सोचेंगे कि दुर्गन्ध वाला फूल कैसा ? यह घी तो है, किन्तु चिकनापन इसमें नहीं है। यह सब बातें आपको अटपटी मालूम होंगी। आप इनकी व्याख्या नहीं कर सकते। __इसी प्रकार यह कहना भी अटपटा और अर्थहीन है कि साधु या श्रावक तो है, किन्तु सत्य नहीं है ! साधु होकर भी सत्य न होने का अर्थ है-अग्नि का होना, किन्तु उष्णता का न होना ! तात्पर्य यह है कि जहाँ सत्य की अग्नि है, वहीं साधुपन या श्रावकपन टिक सकता है। जहाँ गर्मी निकल गई कि वह जीवन निष्प्राण हो गया। मैं कह चुका हूँ कि मनुष्य तभी तक जीवित है, जब तक उसके शरीर में तेज की धाराएँ बह रही हैं- शरीर का एक-एक कण जब गर्मी से गर्म हो रहा है। जब गर्मी निकल जाती है तो शरीर ठण्डा पड़ जाता है और आप समझ जाते हैं कि यह मुर्दा है । मुर्दा सड़ता है, लड़ता नहीं है। तो जिस साधु-जीवन में से या गृहस्थ-जीवन में से सचाई निकल जाती है, उसमें कितना ही दंभ, कितनी ही मक्कारी और कितना ही बनाने का पुरुषार्थ क्यों न हो, वह सफल नहीं होगा। धुंए के बादल बरसेने के लिए नहीं हैं। वे बिखरने के लिए हैं और कण-कण बिखरने के लिए है। वे इस भूमि को तरबतर नहीं कर सकेंगे।
जहाँ सत्य विद्यमान है, वहाँ छल-कपट टिक नहीं सकता । दुनिया भर की बुराइयाँ सत्य के सामने काँपने लगती हैं। कदाचित अन्तःकरण की निर्बलता के कारण जीवन में मजबूती के साथ सत्य को न पकड़ा गया और वह निर्बल पड़ गया, तो फिर बुराइयाँ खुल कर खेलने लगती हैं । मगर जब तक जीवन के मैदान में सत्य सजग
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