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________________ सत्य दर्शन/२५ प्रहरी की भाँति डटा है, बुराइयाँ पास में फटकने का भी साहस नहीं कर सकतीं । मैंने बतलाया था कि चोर ने चोरी तो नहीं छोड़ी, किन्तु सत्य का नियम ले लिया, तो चोरी भी अधिक समय तक नहीं टिक सकी। जब सन्त ने उसके जीवन में सत्य को उतार दिया, तो चोरी को भी बिस्तर बाँधकर रवाना होना ही पड़ा। इस प्रकार एकमात्र सत्य का प्रबल प्रकाश ही हमारे जीवन को सम्पूर्ण ज्योतिर्मय बना सकता है। शिशु और सत्य : कहने को कहा जाता है कि मैं सत्य को ग्रहण कर तो लूँ, मैं सत्य के पथ पर चलूँ, किन्तु वास्तव में सत्य का मार्ग बड़ा कठिन है ! उस पर किस प्रकार पैर बढ़ाए जाएँ ? सत्य बोलना तो बड़ा ही कठिन कार्य है ! और झूठ बोलना सरल है। इसका अर्थ यह है कि जीवन में सत्य को लाना तो चाहते हैं, परन्तु जब जीवनमार्ग में पुरुषार्थ करना पड़ता है, तो सत्य पर टिकना कठिन हो जाता है। मगर देखा जाए तो इस विचार के मूल में दुर्बलता ही दिखाई देगी। व्यवहार में ही देखें तो पता चल जाएगा कि पहले सत्य रहा है या असत्य ? जब बचपन के रूप में इन्सान की जिन्दगी आई और जब तक दुनिया की छाया बच्चे पर नहीं पड़ी, तब तक वह सत्य में रहता है या असत्य में ? छोटे बच्चे जीवन के प्रारम्भ में असत्य बोलना नहीं जानते। वे जो कुछ भीतर है, उसे साफ-साफ कह देना जानते हैं। धीरे-धीरे उनमें से सत्य का अंश निकल जाता है और वे झूठ बोलने लगते हैं ; बल्कि झूठ बोलने के लिए वे तैयार किए जाते हैं। असत बोलने की शिक्षा उन्हें माता-पिता के द्वारा मिलती है, भाई-बहिन से मिलती है, और दूसरे पारिवारिक जनों से मिलती है। उन्हें असली बात को छिपाने के लिए समझाय जाता है, कहा जाता है-'है तो ऐसा ही, मगर ऐसा कहना मत, यों कहना । ___ तो हुआ क्या ? बालक का जीवन स्वभावतः सत्य की ओर चल रहा था और वह साफ-साफ सच्ची बात कह देता था । वह सत्यमय जीवन लेकर आया था। किन् दुर्भाग्य से परिवार वालों का और दूसरों का जीवन तथा उपदेश उसे असत्य की रा पकड़ा देता है। सचाई यह है कि सत्य बोलना सिखलाने की आवश्यकता ही नहीं है, सत्य त जन्म-घूटी के ही साथ आता है। वह मानव जीवन का अनिवार्य अंग या साथी है अगर किसी चीज को सिखलाने की आवश्यकता पड़ती है, तो वह है असत्य ! असत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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