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सत्य दर्शन / २३
महात्मा कौन और दुरात्मा कौन है ? महात्मा की ऊँची आत्मा होती है और दुरात्मा की नीची । दुरात्मा अन्धकार की ओर जाने वाली आत्माएँ हैं और महात्मा वे हैं, जो अन्धकार से प्रकाश की ओर चलते हैं ।
महात्मा के मन में एक ही बात होती है, और वचन में भी एक ही बात होती है। जो मन में है, वही उसके वचन में होगा। वचन भी जो पहले है, वही बाद में है। ऐसा नहीं कि अब कुछ और कह दिया, और तब कुछ और कह दिया ! साथ ही कर्म, आचरण भी एक ही होगा। इस प्रकार धर्मात्मा के मन, वचन और तन में एक रूपता रहती है। सत्य, मनुष्य की तीनों शक्तियों को एक सूत्र में पिरो देता है। जब एक ही भावना से अनुप्राणित होकर मन, वचन और तन कदम से कदम मिला कर सैनिकों की भाँति दौड़ते हैं और उसी परमात्म-प्रकाश की ओर दौड़ते हैं तो हम समझते हैं कि यह महात्माओं की बाते है, महापुरुषों का लक्षण है 1
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इसके विपरीत, मम में कुछ और चल रहा हो, और ही खटपट एवं गड़बड़ मच रही हो तथा वचन से कुछ और ही प्रकट किया जा रहा हो, मन में काँटों के झाड़ खड़े हो रहे हों, काँटे चुभाए जा रहे हों ; किन्तु वचन से अमृत छिड़का जा रहा हो और आचरण का समय आने पर तीसरा ही रूप ग्रहण कर लिया जाता हो, तो समझ लो कि वह दुरात्मा का लक्षण है ।
साधना की पवित्रता का जीवन अखण्ड ही रहेगा, वह टुकड़ा टुकड़ा होकर नहीं रहेगा । वह एक्लरूप होगा, विरूप नहीं होगा। उसमें सुसंगति होगी, विसंगति को अवकाश नहीं मिलेगा । जीवन की यह अखण्डता, एकरूपता और संगति ही सत्य का स्वरूप है । हमारे जीवन में जितने जितने अंशों में विविध रूपता और असंगति विद्यमान है, समझना चाहिये कि उतने ही अंशों में असत्य है ।
साधना के मार्ग पर आने वालों को, जीवन को महिमामय बनाने की इच्छा रखने वालों को निरन्तर सावधान रहना है और समझना है कि सत्य की साधना भी अहिंसा से कम नहीं है।
आज अहिंसा को स्थूल रूप दे दिया गया है, अतएव लोग अहिंसा का नाटक तो खेल लेते हैं, किन्तु सत्य का आचरण इतना सूक्ष्म है कि उसके द्वार पर पहुँचते ही पैर लड़खड़ाने लगते हैं। भगवान महावीर का मार्ग यह नहीं है। भगवान का उपदेश है कि
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