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________________ २२/ सत्य दर्शन आत्मा सत् है और जब सत् है तो अनन्त-अनन्त काल पहले भी थी, वर्तमान में भी है और अनन्त-अनन्त भविष्य में भी रहेगी। संसार के अनन्त पदार्थ अतीत में भी थे, वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे। इस प्रकार सत् से असत् और असत् से सत् नहीं होता। अस्तु, जो आत्मा के कल्याण के लिए मुँह से निकलता है, वह भी सत्य है, जो मन से सोचा जाता है, वह भी सत्य है, और जो काया से किया जाता है, वह भी सत्य है। इसीलिए जब सत्य की बात आई तो भगवान् महावीर ने कहा 'मणसच्चे, वयसच्चे, कायसच्चे हे साधक ! तेरा मन पवित्र होना चाहिए। तेरे मन में उदारता विराजमान रहनी चाहिए। तेरा मन छोटा न बने, किन्तु विराट और विशाल बने । अपने मन में तू ही आसन जमा कर न बैठ जा, तेरी ही आवश्यकताएं और कल्पनाएँ तेरे मन में व्याप गईं और वहाँ दूसरों को बिठलाने की जगह नहीं रही, तो समझ लेना कि तेरा मन सत् नहीं है। तेरा वह मन असत है। जिस मन में विचारों की पवित्रता रहेगी, वही मन सत है और यही मन का सत्य है। ___ जो अन्तरंग में है, अन्तर्जीवन में है, उसी को हम मुँह से बोलेंगे। जन-कल्याण की दृष्टि से और अपने कल्याण की दृष्टि से गरजती वाणी जो मुँह से बाहर आएगी, वह सत्य होगी। ऐसा न हो कि मन में कुछ हो और वाणी में और ही कुछ हो। परन्तु मैं समझता हूँ कि वचन से बोलने का सत्य ही काम नहीं आता है, जब तक कि मन में सत्य न हो। मन में सचाई होगी तभी वाणी में सचाई रहेगी। मन की सचाई ही वाणी की सचाई का रूप ग्रहण करती है। मन में विषम-भाव आते हैं तो वाणी भी विषम हो जती है। मन की सचाई के अभाव में वाणी असत्य ही कहलाएगी। इसी प्रकार जो मन में सोचा है और वाणी से बोला है, उसी को अपने जीवन में उतारना. उसी के अनुरूप आचरण करना काया की सचाई है। साधक ! तेरे हाथ, पैर औस्शरीर की समस्त चेष्टाएँ यदि तेरे मन और वचन का ही अनुसरण करती हैं, तो तू सच्चा है। 'मनस्येकं वचस्येकं, काये चैकं महात्मनाम् । मनस्यन्द वचस्यन्यत् काये चान्यद् दुरात्मनाम् ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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