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________________ सत्य दर्शन / २१ भरी जा सकती। दुनिया में न जाने कितनों को ये चीजें मिलीं और न मालूम कितने सम्राट् आए; परन्तु धन, ऐश्वर्य और अधिकार के साथ ही जमीन में समा गए । वे पृथ्वी को कंपाते हुए आए और लड़खड़ाते हुए चले गए। मकबरों में पैर फैलाए हुए सोते हैं वह । था जमीं से आसमां तक जिनका शौहरा एक दिन । प्रथम तो उनका नाम ही न रहा, और यदि रहा भी तो वह नाम घृणा एवं तिरस्कार का सूचक बन गया। मरने के बाद भी थूकने के लिए रह गया। ऐसी स्थिति में उनका वैभव और ऐश्वर्य किस काम आया ? इस प्रकार हम देखते हैं कि संसार में मनुष्य के जीवन का जो महत्त्व है, वह ऊँचा उठने में ही है। और कोई भी दूसरी शक्ति उसे ऊँचा नहीं उठा सकती। जीवन को ऊँचा उठाने की शक्ति तो एकमात्र अहिंसा और सत्य ही है। 1 अहिंसा के पश्चात् सत्य की बारी आती है। सत्य का आचरण करने से पहले सत्य को समझ लेना चाहिए। सत्य क्या है, इस सम्बन्ध में हमारे महान् आचार्यों ने बहुत कुछ कहा है, व्याख्या की दृष्टि से भी और व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी । संस्कृत और प्राकृत का व्याकरण, जो शब्दों का पता लगाता है कि शब्द कैसे बना और कैसे आगे बढ़ा और इस प्रकार शब्द का कोना-कोना छान लेता है, वह सत्य के सम्बन्ध में कहता है सद्भ्यो हितं सत्यम् जो सज्जनता का सन्देश लेकर चला है, जो सज्जनता की सद्भावना लेकर चला है, जो सत् का बर्ताव है, वह सत्य है । ही · सत् वह है जिसका कभी नाश नहीं होता। जिसका नाश हो जाए वह सत् कैसा ? वह तो असत् हो गया। हमारे यहाँ कहा गया है 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' -गीता अर्थात् -"जो असत् है, उसका कभी जन्म नहीं हो सकता और जो सत् है, उसका कभी विनाश नहीं हो सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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