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सत्य की त्रिवेणी
अहिंसा और सत्य, हमारे जीवन के दो अंग हैं । एक व्यक्ति को ले लीजिए या परिवार को, समाज को ले लीजिए या देश को, गृहस्थ को ले लीजिए या साधु को-प्रत्येक के जीवन की यही दो पाँखें हैं। जीवन में अहिंसा हो किन्तु सत्य न हो, तो वह अहिंसा पनप नहीं सकेगी, कारगर नहीं हो सकेगी। सत्य की अविद्यमानता में अहिंसा की बाजू ढीली-ढाली रहेगी। इसके विपरीत, अगर हम सत्य के प्रति तो आग्रहशील हो जाएँ, किन्तु उसकी पृष्ठभूमि में अहिंसा न हो, सत्य भी कोरे सत्य के ही रूप में रहे और उसमें अमृत-चेतना का संचार करने वाली दया एवं करुणा की लहर तथा प्रेम की भावना न हो, तो वह अकेला सत्य भी हमारे जीवन में रोशनी नहीं दे सकेगा। इस रूप में अहिंसा और सत्य जीवन के दो पहलू हैं, दो पाँखें हैं । हमारे आचार्य कहते हैं
'यथोभयाभ्यां पक्षाभ्यामाकाशे पक्षिणो गतिः ।' आकाश में पक्षी उड़ना चाहता है, और अनन्त आकाश उड़ान भरने के लिए उसके सामने है, किन्तु यदि उसकी दाहिनी पाँख मजबूत हो और बाईं पाँख ठीक न हो तो वह उड़ नहीं सकता। इसी प्रकार अगर बाईं पाँख मजबूत हो और दाहिनी पाँख कमजोर हो, तो भी वह उड़ान नहीं भर सकता। अहिंसा और सत्यः
हमें जो जीवन, मानव जीवन, इन्सान की जाति का जीवन मिला है, वह रेंगने के लिए, घिसटने के लिए नहीं है। यह जीवन साधारण जीवन नहीं है। यह पशुओं और हैवानों की तरह नीचे ही नीचे जाने के लिए, राक्षसों की तरह अधःपतन के लिए नहीं मिला है। जो कीडे जमीन में जगह तलाश किया करते हैं और नीचे घुसने का ही प्रयत्न किया करते हैं, मनुष्य का जीवन उनके समान नहीं है। यह जीवन उड़ान भरने के लिए है और उड़ने के लिए है। लेकिन मनुष्य उड़ान भरना चाहेगा, तो वह धन के बल पर उड़ान नहीं भर सकेगा। जाति के, ऐश्वर्य के या अधिकार के भरोसे भी उड़ान नहीं
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