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________________ सत्य दर्शन / १९ राजा-मगर खजाने से तो चार डिब्बे गायब हैं ? चोर-"मैं तो दो ही ले गया हूँ। शेष दो के विषय में मुझे कुछ मालूम नहीं है। मौत के मुँह पर पहुँच कर भी मैंने सत्य ही कहा है। असत्य मुझे कहना नहीं है। असत्य का सेवन करना होता तो स्वेच्छा से यहाँ आता ही नहीं । देखिए महाराज ! भगवान् महावीर के समवसरण में पहुँच कर मैंने धर्मोपदेश सुना। मुझसे चोरी छोड़ने के लिए कहा गया पर परिवार के निर्वाह का दूसरा कोई उपाय न होने के कारण मैंने अपनी असमर्थता प्रकट की। तब मुझ से कहा गया-चोरी नहीं छोड़ सकता तो सत्य तो बोला कर ! अतः मैंने सत्य बोलने का प्रण कर लिया। सत्य ने ही मुझे वह बल दिया है कि मैं आपके समक्ष उपस्थित हूँ।" राजा चोर की बातों पर अविश्वास नहीं कर सका। वह समझ गया । कहते हैं, उसकी सच्चाई से प्रभावित होकर राजा ने उसे कोषाध्यक्ष का पद प्रदान कर दिया। चोर का जीवन सुधर गया। हाँ, तो मैं कह रहा था कि जीवन का कर्तव्य करते हुए यदि कोई व्यक्ति सत्य-भाषण की प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेता है और उससे विचलित नहीं होता, तो उसके जीवन-क्षेत्र में चोरी, व्यभिचार आदि के विषैले अंकुर पनप नहीं सकते । संसार का प्रचण्ड से प्रचण्ड बल भी सत्य के सामने टिक नहीं सकता। यदि मनुष्य सत्य की भली भाँति पूजा करतो है और हृदय की समग्र भावना केन्द्रित करके सत्य की उपासना करता है, तो वह अपने जीवन को सुन्दर, मंगलमय और आदर्श बना सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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