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________________ १९२ / १९५५ दर्शन रखा हो, किन्तु खा न सकें, तो ऐसी स्थिति में आदमी झुंझला जाता है। कुछ अतिथि भौंचक्के से देखते रह गए, कि यह क्या हुआ? आखिर बुद्धिमान देवताओं ने एक तजबीज निकाली । जब देखा, कि हाथ मुड़कर मुँह की ओर आता नहीं हैं, तो आमने-सामने वाले एक दूसरे को खिलाने लग गए। दोनों पंक्तियों वालों ने परस्पर एक दूसरे को खिला दिया, और अच्छी तरह से खाना खा लिया। जिन्होंने एक-दूसरे को खिलाकर पेट भर लिया, वे सभी परितृप्त हो गए। पर कुछ ऐसे भी थे, जो यों ही देखते ही रह गए, उन्हें एक दूसरे को खिलाने की नहीं सूझी, वे भूखे पेट ही उठ खड़े हुए। विष्णु ने कहा जिन्होंने एक दूसरे को खिलाया, वे ही देवता हैं, और जिन्होंने किसी को नहीं रिलाया, सिर्फ खुद खाने की चिन्ता करते रहे, वे दैत्य है। वास्तव में यह रूपक जीवन की एक ज्वलंत समस्या का हल करता है। देवता और राक्षस के विभाजन का आधार, इसमें एक सामाजिक ऊँचाई पर खड़ा किया गया है। जो दूसरे को खिलाता है, वह स्वयं भी भूखा नहीं रहता। और दूसरी बात है, कि उसका आदर्श देवत्व का आदर्श है। जबकि स्वयं ही पेट भरने की चिन्ता में पड़ा रहने वाला स्वयं भी भूखा रहता है, और दूसरों को भूखा रखने के कारण समाज में उसका दानवीय रूप प्रकट होता है। व्रतों की सार्थकताः हमारे व्रत जीवन के इसी महान् उद्देश्य को प्रकट करते हैं । सामाजिक जीवन की आधारभूमि और उसके उज्ज्वल आदर्श हमारे व्रतों एवं त्योहारों की परम्परा में छिपे पड़े हैं। भारत के कुछ पर्व इस लोक के साथ परलोक के विश्वास पर भी चलते हैं। उनमें मानव का विराट रूप परिलक्षित होता है। जिस प्रकार इस लोक का हमारा आदर्श है, उसी प्रकार परलोक के लिए भी होना चाहिए। वैदिक या अन्य संस्कृतियों में, मरने के पश्चात् पिण्ड-दान की क्रिया की जाती है। इसका रू: भी कुछ हो किन्तु भावना व आदर्श इसमें भी बड़े ऊँचे हैं । जिस प्रकार वर्तमान कालीन अपने सामाजिक सहयोगियों के प्रति अपर्ण की भावना रहती है, उसी प्रकार अपने मृत पूर्वजों के प्रति भी एक श्रद्धा एवं समर्पण की भावना इसमें सन्निहित है। जैन धर्म व संस्कृति इसके धार्मिक रूप में विश्वास नहीं रखती उसका कहना है, कि तुम पिण्ड-दान या श्राद्ध करके उन मृतात्माओं तक अपना दान नहीं पहुंचा सकते, और न इससे श्राद्ध आदि मनाने की सार्थकता ही सिद्ध होती है। श्राद्ध तो अपने मृत साथियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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