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सत्य दर्शन / १९३
के प्रति स्नेह श्रद्धा की अभिव्यक्ति है। श्राद्ध का पर्व हो या और कोई पर्व हो, सबकी सार्थकता तो इसी में है, कि जीवन के दोनों ओर-छोर पर निर्मल उल्लास की उछाल आती रहे। समष्टि के प्रति, जिसमें स्व और पर दोनों समाहित हैं, आनन्द की धारा प्रवाहित रहे ।
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जैन संस्कृति में अनेक पर्व प्रचलित हैं। पर्युषण पर्व भी इसी भावना से सम्बद्ध है। • इन पर्वों की परम्परा लोकोत्तर पर्व के नाम से चली आती है। उनका आदर्श विराट होता है, वे लोक-परलोक दोनों को आनंदित करने वाले होते हैं। उनका संदेश होता है, कि तुम सिर्फ इस जीवन के भोग, विलास व आनन्द में मस्त होकर अपने भविष्य को भूलो नहीं, तुम्हारी दृष्टि व्यापक होनी चाहिए। आगे के लिए भी जो कुछ करना है, वह यहीं पर कर लेने जैसा है। तुम्हारे दो हाथ हैं। एक हाथ में इहलोक के आनन्द हैं, तो दूसरे हाथ में परलोक के आनन्द रहने चाहिए। ऐसा न हो कि यहाँ पर सिर्फ मौज-मजा के त्यौहार मनाते यों ही चले जाओ और आगे फाकाकशी करनी पड़े। अपने पास जो शक्ति है, सामर्थ्य है, उसका उपयोग इस ढंग से करो, कि इस जीवन के आनन्द के साथ परलोक का आनन्द भी नष्ट न हो, उसकी भी व्यवस्था तुम्हारे हाथ में रह सके। जैन पर्वों का यही अंतरंग है, कि वे आदमी को वर्तमान में भटकने नहीं देते, मस्ती में भी उसे होश में रखते हैं। समय-समय पर जीवन के लक्ष्य को, जो कभी प्रमाद की आँधियों से धूमिल हो जाता है, स्पष्ट करते रहते हैं उसको दिङ्मूढ़ होने से बचाते रहते हैं, और प्रकाश की किरण बिखेर कर अन्धकाराच्छन्न जीवन को आलोकित करते रहते हैं ।
नया साम्राज्य:
बौद्ध साहित्य में एक कथानक आता है, भारत में एक ऐसा राज्य था, जिसकी सीमाओं पर भयंकर जंगल थे, जहाँ पर हिंस्र वन्य पशुओं की चीत्कारों और दहाड़ों से आस-पास के क्षेत्र आतंकित रहते थे। उस राज्य में एक विचित्र प्रथा यह थी कि वहाँ के राजा के शासन की अवधि पाँच वर्ष की होती थी। शासनावधि की समाप्ति पर बड़े धूमधाम और समारोह के साथ उस राजा को और उसकी रानी को राज्य की सीमा पर स्थित उस भयंकर जंगल में छोड़ दिया जाता था, जहाँ जाने पर बस मौत ही उनके स्वागत में खड़ी रहती थी। इसी परम्परा में एक बार एक राजा को जब गद्दी मिली, तो
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