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________________ सत्य दर्शन / १९१ समाज व राष्ट्र के कल्याण के लिए ही होता था। उन लोगों ने यही विचार दिया कि जब हम इस जगत् में आए थे, तो साथ में कुछ साधन लेकर नहीं आए थे, जन्म के समय तो मक्खी-मच्छर तक को शरीर से दूर हटाने की शक्ति नहीं थी। शास्त्रों में उक्त स्थिति को 'उत्तानशायी' कहा गया है। जब उसमें करबट बदलने की भी क्षमता नहीं थी, इतना अशक्त और असहाय प्राणी बाद में इतना शक्तिशाली कैसे बना? इसका आधार भी कुछ है, और वह है-अपने शुभकर्मों का पूर्व संचय एवं उसके आधार पर प्राप्त होने वाले माता, पिता, परिवार व समाज आदि का प्रत्यक्ष सहयोग। एक-दूसरे के सहयोग के बिना परिवार, समाज तथा राष्ट्र कैसे प्रगति कर सकता है? यह निश्चित है कि जिन लोगों ने हमें समाज की इतनी ऊँचाइयों पर लाकर खड़ा किया है, उनके प्रति हमारा बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। समाज का ऋण प्रत्येक मनुष्य के सिर पर है, जिसे लेते समय तो हर्ष के साथ लेता है, किन्तु उसको चुकाते समय वह कुलबुलाता क्यों है ? हमारी यह सब सम्पत्ति, सब ऐश्वर्य और ये सब सुख-सामग्रियाँ समाज की ही देन हैं । यदि मनुष्य लेता ही जाए, वापस दे नहीं, तो समाज के अंग में विकार पैदा कर देता है। वह इस धन-ऐश्वर्य का दास बनकर क्यों रहे, उसका स्वामी बनकर क्यों न उपयोग करे। उसे दो हाथ इसलिए मिले हैं, कि एक हाथ से वह स्वयं खाए और दूसरे हाथ से वह औरों को खिलाए। वेद का मंत्र है-शत हस्त समाहर, सहस्र हस्त संकिर । सौ हाथ से इकट्ठा करो, तो हजार हाथ से बाँटो। संग्रह करने वाला यदि विसर्जन नहीं करे, तो उसकी क्या दशा होती है ? पेट में यदि अन्न आदि-खाद्य इकट्ठा होते जाएँ. न उनका रस बने, न मल का विसर्जन हो, तो क्या आदमी जी सकता है ? मनुष्य यदि समाज से लेता है, तो समाज की भलाई के लिए देना भी आवश्यक है, खुद खाता है तो, दूसरों को खिलाना भी जरूरी है। हमारे अतीत इतिहास के उदाहरण बताते हैं, कि अकेला खाने वाला राक्षस होता है और दूसरों को खिलाने वाला देवता। एक बार की बात है कि भगवान् विष्णु की ओर से देवताओं को प्रीति-भोज का आंमत्रण दिया गया। सभी अतिथियों को दो पंक्तियों में आमने-सामने बिठलाकर भोजन परोसा गया। अंत में सभी से भोजन करने का निवेदन किया। किन्तु भगवान् विष्णु ने ऐसी माया रची, कि सभी के हाथ सीधे रह गए, किसी का भी मुड़ नहीं सका। अब समस्या हो गई, कि खाएँ तो कैसे खाएँ ? जब अच्छा भोजन परोसा हुआ सामने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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