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________________ १९० / सत्य दर्शन सिर्फ परलोक की ही बात करता है। इस लोक के जीवन से उसने आँख मूंद ली हैं। हम इस ससार में रहते हैं, तो हमें संसार.के ढंग से ही जीने की कला सीखनी होगी। जब तक जीने की कला नहीं आती है, तब तक जीना वास्तव में आनन्द दायक नहीं होता। जैन परम्परा, जैन पर्व एव जैन विचार हमें जीने की कला सिखाते हैं । हमारे जीवन को सुख और शांतिमय बनाने का मंत्र देते हैं। जैन धर्म का लक्ष्य मुक्ति है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि उसके पीछे इस जीवन को बर्बाद कर दिया जाए। वह यह नहीं कहता, कि व्यक्ति मुक्ति के लिए परिवार व समाज के बन्धनों को तोड़ डाले, कोई किसी को अपना न माने, कोई पुत्र अपने पिता को पिता न माने, पति-पत्नी परस्पर कुछ भी स्नेह का नाता न रखें, बहिन-भाई आपस में एक दूसरे से निरपेक्ष होकर चलें । जीवन की यात्रा में चलते हुए परिवार, समाज व राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का भार उतार फेंके। इस प्रकार तो जीवन में एक भयंकर तूफान आ जायगा, भारी अव्यवस्था और अशान्ति बढ़ जायगी। मुक्ति तो दूर स्वर्ग के धरातल से भी गिरकर नरक के धरातल पर चले जाएँगे। जैन धर्म का संदेश है, कि हम जहाँ भी रहें, अपने स्वरूप को समझ कर रहें, शारीरिक, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों के बीच बंधे हुए भी उनमें कैद न हों । परस्पर एक-दूसरे की भावना को समझकर चलें, शारीरिक सम्बन्धों को महत्व न देकर आत्मिक पवित्रता का ध्यान रखें। जीवन में सब कुछ करना पड़ता है, किन्तु आसक्त होकर नहीं। जो कुछ भी किया जाए, एक पवित्र कर्तव्य के नाते किया जाए। शरीर व इन्द्रियों के बीच में रहकर भी उनके दास नहीं, अपितु स्वामी बनकर रहें । भोग में रहते हुए भी योग को न भूल जाएँ। महलों में रह कर उनके दास न बनें, अपितु उन्हें अपना दास बना कर रखें। ऊँचे सिंहासन पर या ऐश्वर्य के विशाल ढेर पर बैठकर भी उसके गुलाम न बनें, बल्कि उसे अपना गुलाम बनाए रखें। जब धन, स्वामी बन जाता है, तभी वह मनुष्य को भटकाता है। धन और पद मूर्तिमान शैतान हैं । जब तक ये इंसान के पैरों के नीचे दबे रहते हैं, तब तक तो ठीक है, परन्तु जब ये सर पर सवार हो जाते हैं, तब इंसान को भी शैतान बना देते हैं। समाज का ऋणः जैन धर्म में भरत जैसे चक्रवर्ती भी रहे हैं, किन्तु वे इस विशाल साम्राज्य के बंधन में नहीं फँसे । जब तक अपेक्षा रही, उपयोग किया और जब त्याग की अपेक्षा हुई, तब कच्चे धागे की तरह तोड़कर फेंक दिया। उनका ऐश्वर्य और शासन, बल और बुद्धि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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