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________________ १७४/ सत्य दर्शन क्या पंचेन्द्रिय और क्या एकेन्द्रिय, सभी को जीना है और जैनधर्म नहीं कहता है कि पंचेन्द्रिय की ही रक्षा करो और एकेन्द्रिय को मारो या मरने दो। उसने तो यही कहा है कि तुम्हारा कर्तव्य जीव-मात्र के प्रति दया का भाव रखना है, परन्तु पहला उत्तरदायित्व वहीं है, जहाँ तुम रह रहे हो। जिन जीवों में तुम्हारी सरीखी ही चेतना मौजूद है, पहले उनके प्रति अपनी करुणा की भेंट चढ़ाओ । फिर आगे बढ़ो और छोटे-छोटे जीवों पर भी अपने करुणा-भाव का विस्तार करो। जल को लो, तो उससे ज्यादा मत लो, जितने की तुम्हें आवश्यकता है। जरूरत से ज्यादा, एकेन्द्रिय प्राणियों के भी प्राण हनन करने का तुम्हें हक नहीं है। यही बात गांधी जी के जीवन में भी उतर कर आई थी। गांधी जी यरवदा-जेल में थे और वहाँ रुई धुना करते थे। धुनते-धुनते तांत ढीली पड़ गई, तो उसे मजबूत बनाने के लिए उन्होंने सोचा-नीम के पत्तों से ठीक कर लेना चाहिए। जेल के आदमी से नीम के कुछ पत्ते लाने के लिए कहा, तो वह एक टोकरी पत्तों से भर कर ले आया। उस समय चोइथराम गिडवानी उनके पास मौजूद थे। उन्होंने एक लेख में लिखा है-"उस पत्तों से भरी टोकरी को देखकर महात्मा जी की आत्मा वेदना और दया से भर गई। उन्होंने उस आदमी से कहा- तुमने मुझ से प्रेम किया है और इस कारण सारे वृक्ष को Vत कर ले आए हो। पर, तुम्हें मालूम कि जैसी वेदना तुम्हें होती है, वैसी ही वेदना वनस्पति को भी होती है ? मनुष्य को जरूरत के लिए काम करना पड़ता है, किन्तु व्यर्थ में एक पत्ते की भी हत्या नहीं होनी चाहिए। आज के बाद तुम ऐसी भूल नहीं करोगे, यही मेरी सब से बड़ी सेवा है।" ___ जैन धर्म का यही सन्देश है। वह कहता है कि पानी की एक बूंद भी व्यर्थ न बहाओ । एक पत्ती की भी निरर्थक हत्या न करो। इस रूप में अहिंसा की मर्यादाओं को लेकर ही हम आगे बढ़ें। और अहिंसा के सम्बन्ध में जो बात है, वही सत्य के सम्बन्ध में भी है। ऐसा नहीं है कि अहिंसा का व्रत छोटा है और उसमें मर्यादाएँ हो सकती हैं, किन्तु सत्य का व्रत इतना बड़ा है कि उसमें मर्यादाएँ नहीं हो सकतीं । संभव है आजकल के विचारक, और संभव है पुराने युग के विचारक भी कहते हों कि सत्य के लिए कोई मर्यादा नहीं हो सकती। परन्तु बात ऐसी नहीं है। अन्यथा साधु और गृहस्थ की व्रत-मर्यादा में अन्तर ही क्यों किया जाता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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