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________________ सत्य दर्शन / १७५ मान लीजिए, एक गृहस्थ ऐसी जगह रहता है, जहाँ उसकी रक्षा का पूरा प्रबन्ध नहीं है। वहाँ आक्रमणकारी आ जाते हैं और गृहस्थ से मालूम करते हैं कि तुम्हारी सम्पत्ति कहाँ है ? बताओ, तुम्हारे घर की स्त्रियाँ कहाँ हैं ? और चीजें कहाँ हैं ? ऐसी स्थिति में, मैं समझता हूँ कि संसार का कोई भी धर्म, जो शास्त्र की सीमाएँ बाँध कर चला है, सत्य का आग्रह नहीं करता है। वह नहीं कहता कि गृहस्थ सब की सब चीजें बतला दे और स्त्रियों को भी आक्रमणकारियों के सामने उपस्थित कर दे। अगर कोई गृहस्थ ऐसा करता भी है, तो बाद में उसके जीवन में जो संकल्प, आर्त-ध्यान और रौद्र-ध्यान के रूप में उत्पन्न होंगे, उनसे वह और भी अधिक पापों का संग्रह कर लेगा । इस रूप में, जैनधर्म सत्य के विषय में भी मर्यादाएँ कायम करता है और उसका ऐसा करना उचित ही है। गृहस्थ को आत्म-रक्षा के लिए, अपने परिवार और देश की रक्षा के लिए समझौता करना पड़ता है। किसी देश का नागरिक शत्रु-देश में गिरफ्तार हो जाए, जैसा कि युद्ध के अवसर पर प्रायः होता है, और शत्रु-देश का कोई अधिकारी उससे उसके देश की गुप्त बातें पूछे, तो गिरफ्तार नागरिक का क्या कर्त्तव्य है ? वह क्या बतलाए और क्या न बतलाए ? क्या अपने देश की बातें उसके सामने खोल कर रख दे ? क्या अपने राष्ट्र की गुप्त योजनाएँ सत्य के रूप में वह प्रकट कर दे ? हाँ, अगर उसमें मरने का हौसला है और इतनी बड़ी हिम्मत है, तब तो वह स्पष्ट रूप से कह देंगा कि मुझे प्राण देना स्वीकार है, पर अपने देश का भेद खोलना स्वीकार नहीं है। और अगर इतनी तैयारी नहीं है, जीवन की भूमिका में वह इतना ऊँचा नहीं उठा है, तो गृहस्थ के लिए ऐसी मर्यादा बाँध दी गई हैं कि वह जितना चल सके, उतना ही चले । अलबत्ता, गृहस्थ को भी अधिकार नहीं कि वह भयंकर परिणाम लाने वाले; द्वन्द्व खड़ा करने वाले और हजारों की जिन्दगी खत्म कर देने वाले असत्य का प्रयोग करे। हमारे एक प्रतिभाशाली आचार्य कहते हैं-' "स्थूलमलीकं न वदेत्, न परान्वादयेत्सत्यमपि विपदे ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only - रत्नकरण्ड श्रावकाचारे www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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