SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य दर्शन / १७३ स्थूल-मृषावाद को त्यागने का अर्थ क्या है ? छोटा असत्य क्या है और बड़ा असत्य क्या है ? जैसे अहिंसा के सम्बन्ध में स्थूल और सूक्ष्म मर्यादाएँ हैं, उसी प्रकार सत्य के विषय में भी हैं । अहिंसा के पथ पर चलने वाले साधक के सामने परिपूर्ण अहिंसा ही लक्ष्य रहती है। वह चाहता है कि अहिंसा की समस्त धाराएँ उसके जीवन में प्रवेश करें । जैन-धर्म ने माना है __"सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं ।' "ऊपर से नीचे तक जितने भी प्राणी हैं, उन सब में सुख-दुःख की लहर है और सभी जीवित रहना चाहते हैं । मरना कोई भी नहीं चाहता। अतएव तुम्हारी दया और करुणा विश्व के समस्त प्राणियों की ओर एक-रस बहनी चाहिए।" ऐसा होने पर भी जब अहिंसा को प्राप्त करने चलो, तो एक मार्ग बना कर चलो-पगडंडियाँ बना कर चलो। इस रूप में, जैन धर्म की अहिंसा, गृहस्थ-जीवन में उतरी। उसने वर्गीकरण की पद्धति का उपयोग किया। एक तरफ पंचेन्द्रिय जीव है। आहार के लिए उसका संहार करना, उसके प्राणों का घात करना एक बहुत बड़ा गुनाह है। पंचेन्द्रिय की घात करना और मांस खाना नरक की राह है। इस प्रकार जैनधर्म ने सबसे पहले उन बड़े जीवों की हिंसा त्यागने की प्रेरणा की। उसने सोचा कि मनुष्य की जिन्दगी को एक साथ नहीं समेटा जा सकता है। मनुष्य की अपनी परिस्थितियाँ हैं और अपने जीवन की धाराएँ हैं। उन पर थोड़ा-थोड़ा चलता है, तो एक दिन बहुत आगे भी बढ़ जाएगा और अपने लक्ष्य तक पहुंच जाएगा । कल्पना कीजिए, जो बालक अभी खड़ा ही नहीं हो सकता, उसे पहले खड़ा तो होने दो, उसे दौड़ने को मत कहो । जो खड़ा हो सकता हो, उसे चलने तो दो, उसे दौड़ने को क्यों कहते हो? और जो चल सकता है, उसे ही दौड़ लगाने को कहना उचित माना जा सकता है। यह एक रूपक है। इसी प्रकार जिसने अहिंसा और सत्य के मार्ग पर चलना ही नहीं आरम्भ किया है, उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह पूरी तरह उसका पालन करने लग जाएगा। उसके लिए अहिंसा और सत्य की विविध भूमिकाएँ हैं और वह अपनी शक्ति के अनुसार उन भूमिकाओं को प्राप्त करता जाए और क्रमशः आगे बढ़ता चला जाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy