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________________ १७२ / सत्य दर्शन जानता था कि आज उसे क्या समझते हुए क्या कहना पड़ेगा। मगर वह वचन दे चुका था। दोनों विद्वानों में शास्त्रार्थ हुआ। लम्बी चर्चा हुई। राजा वसु ने निर्णय में स्पष्ट हाँ या 'ना' न करके जब नारद बोला, तो चुप्पी साध ली और जब पर्वत बोलने लगा, तो उसका समर्थन कर दिया। कहते हैं, ऐसा करते ही वसु का सिंहासन, जो सत्य के प्रभाव से अधर ठहरा हुआ था, नीचे आ रहा। वसु ने अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए असत्य बोला होता, तो वह असत्य भी असत्य ही था, पर उसका प्रभाव दूसरों पर न पड़ता। उस असत्य का प्रभाव उसी के जीवन तक सीमित रहता, किन्तु जब एक सिद्धान्त के लिए असत्य बोला गया, धर्म के लिए असत्य का व्यवहार किया गया और संस्कृति की दृष्टि से असत्य का समर्थन किया गया, तो उसका प्रभाव वसु तक ही सीमित नहीं रहा। उस असत्य ने व्यापक रूप ग्रहण कर लिया। उसके फलस्वरूप हजारों-वर्षों से जो अनेकानेक पशु मारे जा रहे हैं, उसका दायित्व वसु पर ही पहुँचता है। एक समय और एक रूप में बोला गया असत्य हजारों वर्षों तक चलता रहा और आज भी वह चलता जा रहा है। मतलब यह है कि असत्य का पूर्ण रूप से त्याग करना, तो उचित है ही, इसमें मतभेद के लिए कोई अवकाश नहीं है, किन्तु जब यह संभव न हो, तो हमें उसकी मर्यादाएँ बना लेनी चाहिएँ। आनन्द की सत्य साधना : मैंने प्रारम्भ में आनन्द श्रावक का उल्लेख किया है। उसने भगवान् महावीर के समक्ष सत्य की प्रतिज्ञा ग्रहण की, तो गृहस्थ-जीवन की मर्यादाओं को ध्यान में रखकर ही की । साधु-जीवन और गृहस्थ-जीवन की मर्यादाएँ अलग-अलग हैं । शास्त्रकार भी उन मर्यादाओं पर दृष्टि रखते हैं और उनके आधार पर ही सत्य का विधान करते हैं । आनन्द श्रावक ने स्थूल-मृषावाद का त्याग किया था। अर्थात् वह पूर्ण रूप से असत्य का त्याग नहीं कर सके थे। आनन्द ने पहले अपनी कमजोरियों को नापा, सोचा कि गृहस्थ-जीवन के क्षेत्र में चल रहे हैं, तो कहाँ-कहाँ चलना पड़ेगा ? जीवन की सब समस्याएँ उनके सामने थीं । अतएव वह जितना आगे चल सकते थे, उतना ही स्वीकार किया। और उन्होंने स्थूल -मृषावाद का त्याग करके सत्य के एक अंश को अंगीकार किया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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