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________________ सत्य दर्शन/७ तुम्हारा अज्ञान होगा। भीतर देखने पर तुम्हें आत्मा-परमात्मा की शक्ल बदलती हुई दिखलाई देगी। आपके अन्दर के राक्षस-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि, जो हजारों तलवारें लेकर तुम्हें तबाह कर रहे हैं, सहसा अन्तर्धान हो जाएँगे। अन्दर का देवता रोशनी देगा, तो अन्धकार में प्रकाश हो जाएगा। इस प्रकार वास्तव में अन्दर ही भगवान मौजूद है। बाहर देखने पर कुछ भी हाथ नहीं लगने वाला है। एक साधक ने कहा है ढूँढन चाल्या ब्रह्म को, दूंढ़ फिरा सब ढूँढ़ । जो तू चाहे ढूँढ़ना, इसी दूंट में दूंठ ।। तू ब्रह्मा को और ईश्वर को ढूँढ़ने के लिए चला है और दुनिया भर की जगह तलाश कर चुका है और इधर-उधर भटकता फिरता है। कभी नदियों के प्रानी में और कभी पहाड़ों की चोटी पर और सारी पृथ्वी के ऊपर ईश्वर की तलाश करता रहा है किन्तु वह कहाँ है ? यदि तुझे ढूँढ़ना है, वास्तव में तलाश करना है और सत्य की झाँकी अपने जीवन में उतारनी है, तो सबसे बड़ा मन्दिर तेरा शरीर ही है, और उसी में ईश्वर विराजमान है। शरीर में जो आत्मा निवास कर रही है, वही सबसे बड़ा देवता है। यदि उसको तलाश कर लिया तो फिर अन्यत्र कहीं तलाश करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, तुझे अवश्य ही भगवान् के दर्शन हो जाएंगे। मन मथुरा, तन द्वारका, और काया काशी जान । दस द्वारे का देहरा, तामें पीव पिछान ॥ अगर तू ने अपने-आपको राक्षस बनाए रखा और हैवान बनाए रखा और फिर ईश्वर की तलाश करने को चला, तो तुझे कुछ नहीं मिलना है। संसार बाहर के देवी-देवताओं की उपासना के मार्ग पर चला जा रहा है। उसके सामने भगवान् महावीर की साधना किस रूप में आई? यदि हम जैन धर्म के साहित्य का भली-भाँति चिन्तन करेंगे तो मालूम होगा कि जैनधर्म देवी-देवताओं की ओर जाने के लिए है, या देवताओं को अपनी ओर लाने के लिए है ? वह देवताओं को साधक के चरणों में झुकाने के लिए चला है, साधक को देवताओं के चरणों में झुकाने के लिए नहीं चला है । सम्यक् श्रुत के रूप में प्रवाहित हुई भगवान् महावीर की वाणी दशवैकालिक सूत्र के प्रारम्भ में ही बतलाती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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