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८ / सत्य दर्शन
धम्मो मंगलमुक्किटुं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥
दशवैकालिक १ "धर्म अहिंसा है। धर्म संयम है। धर्म तप और त्याग है। यह महामंगलमय धर्म है। जिसके जीवन में इस धर्म की रोशनी पहुँच चुकी, देवता भी उसके चरणों में नमस्कार करते हैं।" देव से बड़ा मनुष्य :
इसका अभिप्राय यह हुआ है कि जैनधर्म ने एक बहुत बड़ी बात संसार के सामने रखी है। तुम्हारे पास जो जन-शक्ति है, धन शक्ति है, समय है और जो भी चन्द साधन-सामग्रियाँ तुम्हें मिली हुई हैं, उन्हें अगर तुम देवताओं के चरणों में अर्पित करने चले हो, तो उन्हें निर्माल्य बना रहे हो। लाखों और करोड़ रुपये देवी-देवताओं को भेंट करते हो, तो भी जीवन के लिए उनका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अतएव यदि सचमुच ही तुम्हें ईश्वर की उपासना करनी है, तो तुम्हारे आस-पास की जनता ही ईश्वर के रूप में है। छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे, असहाय स्त्रियाँ और दूसरे जो दीन और दुःखी प्राणी हैं, वे सब नारायण के स्वरूप हैं, उनकी सेवा और सहायता, ईश्वर की ही आराधना है।
तो जहाँ जरूरत है, वहाँ इस धन को अर्पण करते चलो। इस रूप में अर्पण करने से तुम्हारा अन्दर में सोया हुआ देवता जाग उठेगा और वह बन्धनों को तोड़ देगा और कोई दूसरा बाहरी देवता तुम्हारे क्रोध, मान, माया, लोभ और वासनाओं के बंधनों को नहीं तोड़ सकता। वस्तुतः अन्तरंग के बंधनों को तोड़ने की शक्ति अन्तरंग आत्मा में ही है।
इस प्रकार जैनधर्म देवताओं की ओर नहीं चला, अपितु देवताओं को इन्सानों के चरणों में लाने के लिए चला है।
हम पुराने इतिहास को और अपने आसपास की घटनाओं को देखते हैं, तो मालूम होता है कि संसार की प्रत्येक ताकत नीची रह जाती है और समय पर असमर्थ
और निकम्मा साबित होती है। किसी में रूप-सौन्दर्य है । जहाँ वह बैठता है, हजारों आदमी टकटकी लगाकर उसकी तरफ देखने लगते हैं । नानेटोरी में गा
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