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________________ ६ / सत्य दर्शन परिणाम-स्वरूप धूमधाम मचती है, क्रियाकाण्ड का आडम्बर किया जाता है, अमुक को प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है, कभी भगवान् को और कभी गुरूजी को रिझाने की चेष्टाएँ की जाती हैं, और ऐसा करने में हजारों-लाखों पूरे हो जाते हैं। लेकिन आपका कोई साधर्मी भाई है, वह जीवन के कर्त्तव्य के साथ जूझ रहा है, उसे समय पर यदि थोड़ी-सी सहायता भी मिल जाए, तो वह जीवन के मार्ग पर पहुँच सकता है और अपना तथा अपने परिवार का जीवन-निर्माण कर सकता है ; किन्तु उसके लिए आप कुछ भी नहीं करते ! ___तात्पर्य यह है कि जब तक सत्य को जीवन में नहीं उतारा जाएगा, सही समाधान नहीं मिल सकेगा, जीवन में व्यापी हुई अनेक असंगतियाँ दूर नहीं की जा सकेंगी और सच्ची धर्म-साधना का फल भी प्राप्त नहीं किया जा सकेगा। लोग ईश्वर के नाम पर भटकते फिरते थे और देवी देवताओं के नाम पर काम करते थे, किन्तु अपने जीवन के लिए कुछ भी नहीं करते थे। भगवान् महावीर ने उन्हें बतलाया कि सत्य ही भगवान है। भगवान् का यह कथन मनुष्य को अपने ही भीतर सत्य को खोजने की प्रेरणा थी। सत्य अपने अन्दर ही छिपा है। उसे कहीं बाहर ढूँढने के बजाय भीतर ही खोजना है। जब तक अन्दर का भगवान् नहीं जागेगा और अन्दर के सत्य की झाँकी नहीं होगी और भीतर का देवता तुम्हारे भीतर प्रकारा नहीं फैलाएगा, तब तक तुम तीन काल और तीन लोक में कभी भी, कहीं पर भी ईश्वर के दर्शन नहीं पा सकोगे। कोई धनवान है, तो उसको भी बतलाया गया कि साधना अन्दर करो और जिसके पास एक पैसा भी नहीं, चढ़ाने के लिए एक चावल भी नहीं, उससे भी कहा गया कि तुम्हारा भगवान् भीतर ही है। भीतर के उस भगवान् को चढ़ाने के लिए चावल का एक भी दाना नहीं, तो न सही। इसके लिए चिन्तित होने का कोई कारण नहीं है। उसे चाँदी-सोने की भूख नहीं है। उसे मुकुट और हार पहनने की भी लालसा नहीं है। उसे नैवेद्य की भी आवश्यकता नहीं है। एकमात्र अपनी सद्भावना के स्वच्छ और सुन्दर सुमन उसे चढ़ाओ और हृदय की सत्यानुभूति से उसकी पूजा करो। यही उस देवता की पूजा की सर्वोत्तम सामग्री है, यही उसके लिए अनुपम अर्घ्य है। इसी से अन्दर का देवता प्रसन्न होगा। इसके विपरीत यदि बाहर की ओर देखोगे, तो वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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