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________________ १४४ / सत्य दर्शन इन्द्र को भगवान् ने जो उत्तर दिया, वह मानव-जाति के लिए एक महान् सन्देश बनकर रह गया। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में विद्वान् पुरुष उसे बार-बार दोहराते आते हैं । भगवान् महावीर ने कहा "इंदा ! न एवं भूयं, न एवं भविस्सइ, न एवं भविउमरिहइ ।" "इन्द्र ! तुम जो कह रहे हो, ऐसा कभी हुआ नहीं और अनन्त अनन्त काल बीत जाने पर भी कभी होगा नहीं और ऐसा होना भी नहीं चाहिए।" और ‘स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् ।' ''तीर्थंकर अपने ही पराक्रम से परम पद को प्राप्त करते हैं। वे किसी की दया पर निर्भर नहीं रहते।" कोई भी साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका और कोई भी अर्हन्त अथवा तीर्थंकर दूसरों की सहायता भी ले, दूसरे के द्वारा अपने जीवन के चारों ओर रक्षा की दीवारें भी खड़ी करे और उनके बीच-बीच में होकर चले और फिर केवल-ज्ञान भी प्राप्त कर ले। यह कभी हुआ नहीं, होगा भी नहीं और वर्तमान में भी नहीं हो सकता। कोई भी साधक अपने ही पुरुषार्थ से, प्रयत्न से, अपनी ही साधना से अपने बंधनों को तोड़ता है और शाश्वत स्वाधीनता प्राप्त करता है। परमुखापेक्षा या परावलम्बन अपने-आप में एक प्रकार का दुःख है। उससे अन्तः करण में दीनता का भाव उत्पन्न होता है। जिसमें दीनता है, वह ऊँचा नहीं उठ पाता, नीचा ही दबा रहता है। उसकी अपनी शक्तियों का विकास नहीं हो सकता। शक्तियों के विकास के लिए जीवन में संघर्ष चाहिए, संघर्ष में अचलता चाहिए और उस अचलता में गौरव अनुभव करने की मनोवृत्ति चाहिए। भगवान् कहते हैं-"इन्द्र ! तुम कुछ नहीं कर सकते मैं स्वयं ही कष्टों को भोगूंगा-अपना विकास आप ही करूँगा। मुझे परकीय सहायता की अपेक्षा नहीं है। जहाँ आत्म-बल के प्रति अनास्था है, वहाँ दुर्बलता है। और जहाँ दुर्बलता है, वहाँ विकास की संभावना नहीं है।" साढ़े बारह वर्ष तक भगवान् का जीवन घोर संकटों में उलझा रहा, दुखों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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