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सत्य दर्शन / १२५
आग से खेलता रहा। दुःखों के पहाड़ उन पर गिरे, किन्तु उनके मस्तक में कम्पन की एक रेखा तक भी नहीं उभर सकी। देवी और देवता भी उन्हें डिगाने आए । मनुष्यों और पशुओं ने भी उन्हें त्रास दिया और ऐसा मालूम होता है कि उनका सम्पूर्ण साधना-काल दुःखों की भट्टी में झुलसता रहा । मगर उनका जीवन उस आग में पड़कर सुवर्ण की तरह निर्मल ही होता गया, उज्ज्वल से उज्ज्वलतर बनता गया। इनका आत्म-बल नष्ट होने से पहले लगातार समृद्ध ही होता चला गया।
तो कहाँ तो साक्षात् देवाधिपति इन्द्र प्रत्यक्ष सेवा में उपस्थित होता है, किन्तु भगवान् कहते हैं कि हम अपने जीवन का निर्माण स्वयं ही करेंगे, और कहाँ यह कल्पित देवी-देवता, जिनके आगे उनके अनुयायी भी मत्था टेकते फिरते हैं।
हजारों की संख्या में यह देवी-देवता इस देश पर छाए हुए हैं। इनके मन्दिर न जाने कितनी बार बने और बिगड़े और न जाने कितनी बड़ी धनराशि उन पर व्यय हुई है। किन्तु वे कुछ भी काम नहीं आ रहे हैं । अनगिनत पीर और पैगम्बर हैं । देश पर महान् संकट आए, माताओं और बहिनों की बेइज्जती हुई. हजारों का कत्ल हुआ, देश का अंग-भंग हुआ, मगर इन देवी देवताओं के कान पर तक न रेंगी, किसी ने करवट तक भी न बदली। आखिर, यह सब किस काम के हैं।
जैन-धर्म देवी-देवताओं के अस्तिस्व से इंकार नहीं करता, पर जिस रूप में जन-साधारण में इनकी मान्यता हो रही है और जिस रूप में लोगों में इनके प्रति अन्धविश्वास जमा हुआ है, वैसा रूप कहीं किसी शास्त्र में नहीं है।
तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि यह अंध-विश्वास असत्य पर आश्रित है। इस असत्य ने जनता में व्यापक रूप धारण कर रखा है। असत्य बोलने वाला कदाचित् सम्यग्दृष्टि रह सकता है। परन्तु, अन्धविश्वासों में तो सम्यग्दर्शन की भी संभावना नहीं है। समाज के कल्याण के लिए इस अन्धविश्वास पर चोट पड़ने की नितान्त आवश्यकता है। इस अन्धविश्वास को दूर किए बिना कोई सत्य की आराधना नहीं कर सकता।
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