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________________ सत्य दर्शन / १४३ ऐसी की कुछ परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई थीं। कुछ लोग साधु का वेष धारण करके जब अनाचार और दुराचार में प्रवृत्त हो जाते हैं, तो भले साधुओं को भी उनकी करतूतों का फल भुगतना ही पड़ता है। इस रूप में यह जीवन भी अनेक घटनाओं को भोगे हुए है। अमुक जगह जाते हैं और पूछते हैं तो उत्तर मिलता है-यहाँ जगह नहीं है। मालूम करते हैं, तो लोग बतलाते हैं - एक चोरी करके भाग गया और दूसरा लड़की को उड़ा कर ले गया। जब इस प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं, तो सोचते हैं- इन लोगों को साधुओं के सम्बन्ध में अनास्था पैदा हो गई है, तो इसमें इनका अपराध नहीं । इनकी दृष्टि में वे भी साधु थे और हम भी साधु हैं। एक धूर्तता का व्यवहार कर गया, तो हमें भी उसका फल भोगना होगा। यह जाति का दोष है । हाँ, तो उस समय भी कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति रही होगी । उस ग्वाले को भगवान् पर अविश्वास हुआ। उसने सोचा- इसी ने मेरी गायों को इधर-उधर कर दिया है । ग्वाला महाप्रभु को मारने-पीटने पर आमादा हो गया। वह पशु की तरह उन्हें पीटने लगा । किन्तु भगवान् देह में रहकर भी देहातीत दशा का अनुभव कर रहे थे। उनका समभाव अखण्ड था। गंभीर, धीर और शान्त भाव से वे ग्वाले की मार सहन कर रहे थे । इसी समय इन्द्र वहाँ आ पहुँचता है। आग की तरह क्रोध से जलता हुआ इन्द्र, ग्वाले को मारने के लिए उद्यत होता है। तब भगवान् का मौन भंग हुआ । वे बोले -" इसे क्यों मारते हो? यह बेचारा तो अज्ञान है। इसे मारने से समस्या हल हो जाएगी क्या ? समस्या तो तब हल होगी, जब जगत् को हम जीवन का सत्य देंगे, जनता को विश्वास आएगा। इसे मारने पीटने से कुछ भी लाभ न होगा।" इन्द्र चकित और स्तंभित रह गया। उसने कहा- "प्रभो ! इसे तो छोड़ देता हूँ, किन्तु आपको तो बड़े-बड़े कष्ट भोगने हैं। जनता की मनोवृत्ति बड़ी विकट है। आप जहाँ कहीं जाएँगे, जहर के प्याले पीने को मिलेंगे। शूली की नोंक तैयार मिलेगी और आपका जीवन क्षत-विक्षत हो जाएगा। यह मुझ से सहन न होगा। अतः मैं आपके श्री चरणों में रहूँगा और आपकी सेवा करूँगा। आपके ऊपर जो आपत्तियाँ आएँगी, उनका निवारण करूँगा और आपके गौरव को सुरक्षित रखूँगा ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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