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________________ 1 १३६ / सत्य दर्शन लहर में इतने ऊँचे उठे, वे अब मोक्ष में हैं। परन्तु आज उनके अनुयायी होने का दम भरने वाले, उनके चरण-चिन्हों पर चलने का दावा करने वाले लोगों की क्या स्थिति है ? वे आज कभी महावीर जी जाते हैं, भगवान् महावीर से बेटे-पोते माँगने के लिए और कभी पद्मपुरी जाते हैं, पद्मप्रभु से भूतप्रेत निकलवाने के लिए । उनके जीवन में न जाने कितने खटराग चल रहे हैं। वीतराग के आदर्श आज पीछे रह गए हैं, वीतराग के उपदेशों को विस्मृत कर दिया गया है। / जैनधर्म ने जिन अन्ध- विश्वासों का प्रबल शक्ति के साथ विरोध किया था, जिन 'लोक - मूढ़ताओं के विरुद्ध बगावत की थी और जिन भ्रान्तिमय कुसंस्कारों की जड़ों में तर्क का मट्ठा डाला था और जिन चीजों से जैन समाज ने टक्कर ली थी, वह जैन समाज आज उन सब का शिकार हो रहा है, हो गया है। वे भी आज भगवान् के दरबार में भूत-प्रेत निकालने की भावना में पड़े हुए हैं । तो, जैनधर्म विचार करता है कि आखिरकार ये चीजें कहाँ से आई हैं ? हमारी फिलॉसफी के साथ तो इनका कोई मेल नहीं बैठता। फिर यह चीजें आज कहाँ से पनप रही हैं ? इसीलिए मैं कहता हूँ कि आज के जैन-जीवन की विरूपता वास्तव में विस्मय-जनक है । एक ओर बौद्धिक चिन्तन इतना ऊँचा है कि अपने विचारों का फीता लेकर सारे संसार को नाप रहा है। हम जानते और मानते हैं कि कोई भी देवता, महापुरुष या अन्य शक्ति हमारे जीवन में अगर परिवर्तन करना चाहे, तो भी नहीं कर सकती। दूसरी तरफ हम मामूली-सी बातों को लेकर, दीन-भाव से अपने, कष्टों को दूर कराने के लिए इधर-उधर भटकते फिरते हैं। भारत की बहुत-सी शक्ति और सम्पत्ति इसी में खर्च हो रही है और अरबों-खरबों के रूप में खर्च हो रही है। देखा जाता है कि लोग देवताओं के ऊपर मुकुट के रूप में हजारों रुपये खर्च कर देते हैं, किन्तु अपने भाई को, जिसके पास खाने-पीने और पहनने को नहीं है, एक पैसा भी नहीं दे सकते। आपको मालूम होगा कि देवताओं को, एक-एक रोज में, पाँच-पाँच - सौ और हजार-हजार रूपए का भोग चढ़ा देते हैं, किन्तु उन्हीं देवताओं के मन्दिरों के सामने भारत के नौनिहाल पैसे पैसे के लिए हाथ पसारते रहते हैं। वे उसी देवता के बेटे-पोते हैं, भूखे-प्यासे भटक रहे हैं, पर उनकी ओर घृणा की दृष्टि से देखा जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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