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________________ सत्य दर्शन / १३५ वह जहाँ भी जाता है, अपनी सुगन्ध फैलाता है। और जिस गली-कूचे में होकर निकलता है, अपने जीवन की महक छोड़ जाता है। आज अधिकांश व्यक्तियों का जीवन इस रूप में विकसित नहीं देखा जाता। एक व्यक्ति बौद्धिक क्षेत्र में प्रगतिशील है और शास्त्रों की लम्बी-लम्बी बातें करता है और दर्शनशास्त्र की गूढ़ समस्याओं पर गंभीर चर्चा करता है, दार्शनिक चिन्तन और मनन में गहरा रस लेता है और दूसरी तरफ देखते हैं कि वह स्थूल शरीर की पूजा करने को भटक रहा है। कभी भैरोंजी के दरबार में पहुँचता है, तो कभी बालाजी के पास भटकता फिरता है। इस प्रकार एक ओर तो उसका जीवन इतना चिन्तन-प्रधान है, जबकि दूसरी ओर वह सर्वथा विचारहीन की तरह आचरण करता है। वहाँ उसका दार्शनिक चिन्तन न जाने कहाँ चला जाता है ? जहाँ तक दूसरों का ताल्लुक है, यह बात कुछ-कुछ समझ में आ सकती है, किन्तु जिन्हें जैनधर्म-जैसा वीतराग धर्म मिला है, वे अगर ऐसा व्यवहार करते हैं तो कुछ समझ में नहीं आता। वीतराग देव के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे न तो हमारी स्तुति से प्रसन्न होते हैं और न निन्दा करने से नाराज होते हैं । वे पूर्ण रूप से मध्यस्थ होते हैं । उनकी मध्यस्थता चरम सीमा पर पहुँची होती है। एक ओर गौतम जैसे विनयवान् शिष्य हजार हजार वन्दन करते हैं, तो भी उनका मन प्रसन्न नहीं हुआ और दूसरी तरफ गोशालक तेजोलेश्या फेंक रहा है और तिरस्कार कर रहा है, तो भी उनके अन्तरंग ने क्रोध की जरा-सी भी चिनगारी नहीं पकड़ी । उन्होंने अपने विरोधियों के प्रति भी अनुकम्पा की, वही अखण्ड शीतल धारा बहाई और अपने भक्तों एवं अनुयायियों के प्रति भी दया का अजस प्रवाहित होने वाला स्रोत बहाया। उत्तराध्ययन सूत्र में इसीलिए कहा है "वासी-चंदण-कप्पो य।" एक ओर सज्जन आए और संभव है कि भक्ति-प्रेरित होकर वह चदन का भी लेप करने लगे और हजारों वन्दन करे और दूसरी ओर कोई दुर्जन बसूला लेकर उस शरीर को छीलने लगे। संभव है, लकड़ी को छीलते समय वह सहम जाए, किन्तु शरीर को छीलते हुए उसे तनिक भी रहम न आए. और बेरहमी से छीलता चला जाए। ऐसी स्थिति में भी वीतराग देव दोनों के प्रति समभाव ही रखते हैं । जो महान् पुरुष वीतरागता की इस उच्चतम भूमिका पर पहुँचे और समभाव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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