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१३४ / सत्य दर्शन
आकाश में विचरण करे और आचार पाताल लोक में भटकता रहे, तो यह जीवन की घोर विरूपता है। इससे जीवन में सुन्दरता नहीं आ सकती। इसे जीवन का वास्तविक विकास नहीं कह सकते। क्रिया-काण्ड तथा सत्य : ___ एक व्यक्ति के जीवन का धार्मिक अंग विकसित हो गया है। वह सामायिक करता है, पौषध करता है और दूसरा क्रियाकाण्ड भी करता है, किन्तु उसके जीवन के दूसरे अंग विकसित नहीं हुए हैं, उसका पारिवारिक रहन-सहन पिछड़ा हुआ है, दुकान में, दफ्तर में या कारखाने में उसका जीवन कुछ और ही ढंग का है, तो नहीं कहा जा सकता कि उसका जीवन विकसित हो गया है। वह जिस सत्य की बात करता है, उसे अपने जीवन में नहीं उतारता । एक तरफ उसकी प्रवृत्ति भगत जी की है और यदि दूसरी ओर प्रवृत्ति शैतान की है, तो यह कैसा धार्मिक जीवन ?
कोई मनुष्य परिवार से बाहर के लोगों से मिलता है, तो दबाव से अथवा अन्य किसी कारण से शिष्ट व्यवहार करता है, मधुर वाणी का प्रयोग करता है और प्रेम से पेश आता है। ऐसा मालूम पड़ता है मानों देवता हो ! किन्तु जब उसी को परिवार में देखते हैं, तो जल्लाद के रूप में वह दिखाई देता है। अपनी स्त्री पर और अपने बच्चों पर अकारण क्रोध करता है और उन्हें त्रास देता है। ऐसे मनुष्य को आप क्या कहेंगे?
दूसरा मनुष्य अपने परिवार के लोगों के प्रति मोहवशात् स्नेह और प्रेम रखता है, किन्तु बाहर दूसरों के साथ अभद्र एवं कटुव्यवहार करता है। ऐसे मनुष्यों के जीवन के विषय में भी आप क्या सोचते हैं ? ____ पहले आदमी के विषय में यही कहा जाएगा कि उसने सामाजिक दृष्टि से, बाहर में तो विकास किया है, किन्तु पारिवारिक दृष्टि से विकास नहीं किया। इसी कारण वह बाहरी लोगों के प्रति सौजन्य प्रकट करता है, पर पारिवारिक दृष्टि से उसका विकास नहीं हुआ है, वह परिवार में गड़बड़ाया हुआ रहता है। इसी प्रकार की बात, दूसरे आदमी के विषय में भी कहनी पड़ेगी। एक के पारिवारिक जीवन का विकास नहीं हुआ हैं, तो दूसरे का सामाजिक जीवन अविकसित है। दोनों का विकास अधूरा और एकांगी है। वस्तुतः जीवन का विकास सभी दिशाओं में एक साथ होना चाहिए। क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक और क्या धार्मिक-सभी अंग जब पुष्ट होते हैं, तभी जीवन पृष्ट कहेला सकता है। ऐसे विकास वाला परुष ही महापरुष कहलाता है और
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