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सत्य दर्शन / ११३ जो मनुष्य केवल नरकगति या तिर्यंचगति के दुःखों से भयभीत होकर अकर्तव्य कर्म नहीं करता है, समझना चाहिए कि वह पाप से नहीं डरता, सिर्फ पाप के फल से डरता है। उसकी दृष्टि में पाप हेय नहीं, पाप का फल ही हेय है। वह पाप को दुःख नहीं मानता, पाप के फल को ही दुःख समझता है। उसे पाप से बचने की चिन्ता नहीं पाप के फल से ही बचने की चिन्ता है। ऐसे आदमी से कोई कह दे कि दुनिया भर की चोरी कर, पाप कर, बुराई कर, तुझे नरक में नहीं जाना पड़ेगा और उसकी श्रद्धा इधर-उधर डिग जाए और नरक का भय न रह जाए, तो वह चोरी करने लग जाएगा पाप से परहेज नहीं करेगा और किसी भी बुराई को बुराई नहीं समझेगा। ऐसे आदमी को, जो चोरी को बुरा नहीं समझता और सिर्फ चोरी के फल को ही बुरा समझता है, आप भी विश्वसनीय नहीं समझेंगे।
किन्तु, जैनधर्म की यह ध्वनि नहीं है। जैन धर्म ने पाप के फल को ही दुःख नहीं कहा है, उसका कहना तो यह है कि पाप या बुराई अपने-आप में ही दुःख रूप है। वाचक-वर उमास्वाति ने कहा है--
'दुःखमेव वा।
-तत्त्वार्थसूत्र, ७/५ अर्थात्-पाप केवल दुःख-जनक हैं, ऐसा नहीं, बल्कि वे स्वयं दुःख हैं।
इस प्रकार जो मनुष्य बुराई को बुराई समझकर चलेगा, इसी भावना से बुराई से बचेगा, उसी का जीवन उच्च स्तर पर पहुँचेगा। इसके विपरीत, जो केवल लोक-भय या नरक के भय से बुराई से बच रहा है, उसके अन्तरंग में कालुष्य है। उसका अन्तरंग पाप में प्रवृत्त है, सिर्फ शरीर से वह पाप नहीं करता है । जब वह समझ लेगा कि नरक-स्वर्ग कुछ नहीं है, फिर चाहे उसकी समझ गलत ही क्यों न हो, किन्तु वह पाप करने से रुकेगा नहीं । उसके मार्ग में फिर कोई बाधा नहीं रह जाएगी।
यह ठीक है कि पहले और दूसरे मनुष्य की अपेक्षा इस तीसरे आदमी में अधिक रोशनी आई है, किन्तु मानव-जीवन की जो सहज रोशनी जैनधर्म उत्पन्न करना चाहता है, वह नहीं आई है।
भगवान् महावीर से कोई पूछता-आप असत्य का सेवन क्यों नहीं कर रहे हैं ? चोरी क्यों नहीं कर रहे हैं ? अखण्ड ब्रह्मचर्य क्यों पाल रहे हैं ? तो भगवान् यह उत्तर
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