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________________ ११४/ सत्य दर्शन देते हैं कि -मैं नरक के डर से पापों का सेवन नहीं करता। पाप करूँगा तो नरक में जाना पड़ेगा, इस भय से मैं पाप करने से रुका हुआ हूँ? नहीं, वे ऐसा न कहते । वे कहते-मैं असत्य का आचरण करूँ कैसे, असत्य का आचरण करने का मेरा मन ही नहीं होता। चोरी करूँ भी तो कैसे करूँ. मेरा मन इधर प्रवृत्त ही नहीं होता। आप भगवान् महावीर से कहिए-आप राजकुल में उत्पन्न हुए हैं। संसार-भर का ऐश्वर्य आपके सामने हाथ जोड़ कर खड़ा है। भोग-विलास की समग्र सामग्री आपको सुलभ है। तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने के कारण मुक्ति पर तो आपका अधिकार हो ही चुका है। वह हट नहीं सकती, बिना मिले रह नहीं सकती। फिर संसार के यह भोग-विलास भोग क्यों नहीं लेते? भगवान् का क्या उत्तर होता? वे यही कहते-मेरे जीवन में कोई संस्कार ही नहीं रह गया है कि मैं ऐसा करूँ । भोग-विलास की ओर मेरी वृत्ति ही नहीं जाती। ऐसा संकल्प ही नहीं जागता। यह है उच्चतर जीवन का परम सत्य । कहने को तो मैंने सहज-भाव से यह बात कह दी है, किन्तु इसकी उपलब्धि के लिए जब लम्बी यात्रा करनी पड़ती है, तब पता चलता है। फिर भी प्रत्येक गृहस्थ को इस स्टेज पर पहुँचना है और वहाँ पहुँचने के लिए इसी पथ पर कदम बढ़ाना है। आपके मन में यह होना चाहिए कि-'मैं गन्दगी में हाथ नहीं डालना चाहता, क्योंकि ऐसा करने से मैं अपवित्र हो जाऊँगा' । इसके विरुद्ध, अगर आप कहते हैं-- 'मैं गन्दगी में हाथ नहीं डालता, क्योंकि ऐसा करने से मेरे माता-पिता नाराज हो जाएँगे, मुझे लोग बुरा समझेंगे, तो समझना होगा कि अभी आप में वह बात पैदा नहीं हुई है। यह सत्य का वास्तविक स्वरूप है और हमको तथा आपको सहज रूप में उसे अपने जीवन में उतारना है। हमें सहज भाव की प्रवृति में पहुँचना है। हम राजदण्ड के भय से प्रेरित होकर न चलें, समाज के भय से भी प्रवृत्ति न करें और नरक निगोद के भय से भी न चलें, बल्कि कर्त्तव्य की पारमार्थिक भावना से प्रेरणा पाकर चलें, हमारी मनोवृत्ति ही उस रंग में रंग जाए और हम सहज भाव से अकर्तव्य से दूर रहें, तभी समझा जाएगा कि हमें तत्व की उपलब्धि हुई है, परमार्थ की प्राप्ति हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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