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११२/ सत्य दर्शन
वह कहता है-वह काम कर तो लूँ, मगर डरता हूँ। पकड़ा गया, तो सजा मिलेगी जेलखाना देखना पड़ेगा।
जब उसका यह उत्तर होता है, तो आप सोच सकते हैं कि वह देश का सच्चा नागरिक नहीं है और उसके अन्दर धर्म की रोशनी नहीं आई है। वह नागरिक-धर्म की प्रेरणा से चोरी करने से नहीं रुक रहा है, बल्कि दंड की भीति और कारावास के कष्टों के कारण ही रुक रहा है। यह नीची और जघन्य वृत्ति है। इसी प्रकार जो साधक साधना तो कर रहा है, किन्तु अन्तः प्रेरणा से नहीं, जनता के भय से या बदनामी के डर से कर रहा है, उसकी साधना का कोई मूल्य नहीं है।
दूसरे आदमी को लीजिए। उससे कोई कहता है-ऐसा क्यों नहीं कर लेते? वह कहता है-'क्या करूँ, कर तो लूँ, किन्तु बिरादरी में बदनाम हो जाऊँगा । बिरादरी वाले क्या कहेंगे ?
पहले आदमी की अपेक्षा इसमें कुछ विकास हो सकता है, परन्तु बिरादरी की भी क्या बात है? जो कुछ करना है, वह यदि योग्य और उचित है और आत्मा उसके लिए साक्षी देती है, तो बिरादरी का डर क्यों है ? यदि वह अनुचित है और अयोग्य है और अन्तःकरण उसके लिए तैयार नहीं है, तो भी बिरादरी का भय क्यों ? आत्म-प्रेरणा से ही उससे अलग क्यों नहीं रहना चाहिए? समाज के भय से दबा रहना भी कोई अच्छी बात नहीं है। यहाँ भी भगवान् महावीर की वाणी का अमृत नहीं झलकता है। अमृत तो • और ही कहीं है।
अब तीसरे आदमी की तरफ मुड़िए। उससे कहा-ऐसा क्यों नहीं कर लेते? वह उत्तर देता है-कर तो लें. किन्तु नरक का अतिथि बनना पड़ेगा और चिरकाल तक नरक की दुस्सह व्यथाएँ भुगतनी पड़ेगी।
हम समझते हैं, पहले और दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा उसके जीवन में कुछ ऊँचाई आ रही है, किन्तु जैनधर्म जिस ऊँचाई की बात कहता है, वह नहीं आई है।
जैन धर्म की दृष्टि और भगवान् महावीर का धर्म इहलोक या परलोक की भीति · से किसी कर्त्तव्य या साधना की प्रेरणा नहीं करता। वह नरक के डर को तुम्हारे मार्ग का रोड़ा नहीं बनाता । वह तो सहज भाव की बात करता है। जीवन में सहज भाव आना चाहिए।
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