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________________ संत्य दर्शन / १११ चालू कर दे ; इस प्रकार अपने शरीर को सुखा कर करोड़ों वर्ष भी क्यों न गुजार दे, फिर भी वह सत्य-धर्म का या जीवन के सत्य का जो मार्ग है, उसमें से सोलहवाँ अंश भी नहीं पा सकता।" - अतएव इस प्रकार की तपस्या और साधना के मूल में सत्य दृष्टिकोण होना चाहिए। कल बतलाया गया था कि प्रकृति की भद्रता होनी चाहिए। उसका अर्थ है कि हमारी साधना को सहज-रूप ग्रहण करना चाहिए। यदि हम अकेले बैठे हैं, कोई आँखें देखने वाली नहीं हैं, तो भी हमारा जीवन उसी लकीर पर चलना चाहिए । ऊपर से नियंत्रण लादा जा रहा हो, तब भी और न लादा जा रहा हो, तब भी, हमारा जीवन एकरूप होना चाहिए। इस प्रकार तुम चाहे गृहस्थ-जीवन की साधना करो या साधु-जीवन की, परन्तु सावधानी से चलो और उस प्रभु के प्रति वफादार होकर चलो। कभी-कभी विचित्र संयोग मिलते हैं । कोई सन्त मिले और उन्होंने अपने शिष्य से कहा-अरे, पानी परठने को जाते हो, तो देखना, जहाँ सागारी न हो वहाँ परठना। ज़ब मैं ऐसी बात सुनता हूँ, तो मुझसे नहीं रहा जाता और मैं कहता हूँ-यह कैसा धर्म है, जो सागारी की विद्यमानता और अविद्यमानता में अलग-अलग रूप धारण करता है ? विवेकपूर्वक परठने की शिक्षा मिलना तो योग्य ही है, परन्तु सागारी के देख लेने या न देख लेने की शिक्षा का क्या अभिप्राय है ? अमुक आदमी कहीं देख न ले, इस प्रकार की भावना का होना जीवन का छोटा स्तर है, उसमें दंभ की गंध है और उसमें साधुत्व या श्रावकत्व पनप नहीं सकता।। गृहस्थ के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसका जीवन भी अगर विरूप है, जनता के सामने एक प्रकार का और अकेले में दूसरे प्रकार का है, तो उसका भी जीवन-निर्माण होने वाला नहीं है। उसे भी जीवन का सत्य नहीं उपलब्ध हआ है और उसके अभाव में इसकी कोई भी साधना कारगर नहीं हो सकती। एक आदमी पैसे से तंग है। तन ढाँपने को वस्त्र और पेट भरने को अन्न उसे नसीब नहीं हो रहा है। वह दूसरे के सामने अपना दुखझ रोता है। दूसरा उससे कहता है-तुम्हारे पास दो हाथ हैं, दो पैर हैं, फिर क्यों मुसीबत उठाते हो? अड़ौस-पड़ोस में बहुत से मालदार रहते हैं। किसी रात को मौका देखकर हाथ मारो-चोरी करो और मौज से रहो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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