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________________ ९८ / सत्य दर्शन तुम्हारा प्रेम परिवार में है, तो उसे समाज का रूप, समाज में है तो राष्ट्र का रूप, राष्ट्र में है तो उसे विश्व का रूप दिया जा सकता है। मूल में कोई चीज है, तो उसे समृद्ध बनाया जा सकता है। छोटा-सा वट-बीज विशाल वृक्ष का रूप ग्रहण कर सकता है। पर वह बीज होना तो चाहिए। बीज ही न होगा, तो विशाल वृक्ष कैसे बनेगा ? तुमने किसी से प्रेम ही नहीं किया, तुम्हारा जीवन अभी तक किसी का सहायक ही नहीं बना, तो आचार्य के पास कोई ऐसी विधि नहीं है कि वह कोई अपूर्व चीज तुम्हारे भीतर डाल सके। भाई, बीज के बिना वृक्ष उगा देने की शक्ति मुझ में नहीं है । जो बात आचार्य के सम्बन्ध में है वही धर्म के सम्बन्ध में है। मनुष्य के जीवन-मूल में जो वृत्तियाँ विद्यमान हैं-प्रेम की, स्नेह की, पारस्परिक सहायता की, एक-दूसरे के आँसू पोंछने की, उन्हीं को विराट रूप देना धर्म का काम है, और कुछ भी नहीं । एक आदमी सुनार के पास जाता है, सैकड़ों चक्कर काटता है और गहने घड़ाने 'की बात कहता है। किन्तु उसके पास यदि सोना नहीं है, तो क्या सुनार उसे गहने घड़कर दे देगा ? सोने के अभाव में सुनार शून्य से गहने नहीं बना सकता। हाँ, गहनों का मूलरूप सोना यदि आपके पास है, तो आप किसी भी सुनार के पास चले जाइए। वह मनचाहा गहना बनाकर आपको दे देगा । इसी प्रकार यदि आपके जीवन के मूल में मानवता है, इन्सानियत है, प्रेम की वृत्ति है, सहानुभूति और समवेदना का भाव है, तो वह धर्म के द्वारा विकसित हो सकता है। आपकी मानवता ही जैनधर्म या किसी अन्य धर्म का रूप ग्रहण कर सकती है। अगर मानवता ही नहीं है किसी के पास, तो कौन धर्म है, जो उसको धार्मिकता का रूप दे सकेगा ? बस इसी मानवता के कारण मानव जीवन की महत्ता है। इसी कारण इस जीवन को महत्त्व दिया गया है। सन्त तुलसीदास ने कहा है बड़े भाग मानुस - तन पावा, सुरदुर्लभ सब ग्रन्थहि गावा । बड़ा भाग्य होता है, तब कहीं मनुष्य का जन्म मिलता है । मनुष्य जीवन : मनुष्य की महिमा आखिर किस कारण है ? क्या इस सप्त धातुओं के बने शरीर के कारण ? इन्द्रियों के कारण ? मिट्टी के इस ढेर के कारण ? नहीं, मनुष्य का शरीर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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