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. सत्य दर्शन/९७ विराट रूप भी ले सकती है। अगर चिनगारी में अग्नि-तत्त्व विद्यमान न हो और वह बुझी हुई हो, तो वह हजार फूंक मारने पर भी और घास-फंस डालने पर भी वह चमकने वाली नहीं है। वह विराट रूप ग्रहण करने को नहीं है।
कहा गया है कि शिष्य के अन्तरतर में मनुष्यता की चिनगारी विद्यमान है और यदि उस पर राख आ गई है और उसकी महत्त्वपूर्ण चमक धुंधली पड़ गई है, तो गुरु के उपदेश की पूँक लगने पर राख उड़ जाती है और चमक प्रकट हो जाती है। फिर ज्यों-ज्यों साधन मिलते जाते हैं, त्यों-त्यों ही वह विराट रूप लेती जाती है। ___ इस रूप में भारतीय दर्शन का यही सन्देश है कि मनुष्य की पवित्रता में विश्वास रखो। मनुष्य अपने मूल में पवित्र है और इसी कारण उसको जगाने के लिए सन्देश की, प्रेरणा की आवश्यकता है। आचार्य और शिष्य :
आचार्य रामानुज का नाम आपने सुना होगा। उसके पास एक शिष्य आया । उसने कहा-मैं आपके चरणों में दीक्षित होना चाहता हूँ । योग्य समझें, तो जगह दें।
आचार्य ने कहा- तुम मेरे शिष्य बनना चाहते हो और साधना के महत्त्वपूर्ण जीवन में कदम बढ़ाना चाहते हो, तो मैं एक बात पूछता हूँ तुम्हारा घर में किससे प्रेम है? माता, पिता, बहिन, भाई वगैरह से स्नेह-सम्बन्ध है या नहीं ?
शिष्य ने तत्काल उत्तर दिया --- मेरा किसी से प्रेम नहीं है ? मैंने किसी से प्रेम नहीं किया है। इसलिए मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करना चाहता हूँ।
शिष्य ने भारत की साधारण जनता की जो भाषा है, उसी का प्रयोग किया !
किन्तु आचार्य ने कहा-तब हमारी और तुम्हारी नहीं पटेगी। जो कुछ तुम्हें पाना है, वह मैं नहीं दे सकूँगा।
शिष्य ने चकित भाव से प्रश्न किया – क्यों नहीं दे सकेंगे महाराज ?
आचार्य--मैं तुम्हें नवीन शिक्षा क्या दूँगा? मुझ में क्या सामर्थ्य है कि मैं कोई अपूर्व चीज तुम्हारे अन्दर पैदा कर दूँ? तुम्हारा प्रेम तुम्हारे परिवार में रहा हो, तुम्हारे जीवन में किसी अन्य के प्रति मधुर सम्बन्ध रहे हों, तो में उन्हें विशाल या विराट बना सकता है। मैं परिवार की संकीर्ण परिधि में घिरे प्रेमभाव को विस्तृत बना सकता हूँ।
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