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________________ सत्य दर्शन / ९९ तो हमें कितनी ही बार मिल चुका है और इससे भी सुन्दर मिल चुका है, किन्तु मनुष्य का शरीर पाकर भी मनुष्य का जीवन नहीं पाया और जिसने मानव-तन के साथ मानव-जीवन भी पाया, वह कृतार्थ हो गया । हम पहली ही बार मनुष्य बने हैं, यह कल्पना करना दार्शनिक दृष्टि से भयंकर भूल है। इससे बढ़कर और कोई भूल नहीं हो सकती। जैन धर्म ने कहा है कि - आत्मा अनन्त-अनन्त बार मनुष्य बन चुका है और इससे भी अधिक सुन्दर तन पा चुका है. मगर मनुष्य का तन पा लेने से ही मनुष्य-जीवन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। जब तक आत्मा नहीं जागती है, तब तक मनुष्य-शरीर पा लेने का भी कोई मूल्य नहीं है । यदि मनुष्य के ढंग में तुमने आचरण नहीं किया, मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यह चीज़ नहीं पैदा हुई, तो यह शरीर तो मिट्टी का पुतला ही है। कितनी ही बार लिया गया है और छोड़ा गया है। इतिहास के पन्ने पलटिए। राम मनुष्य के रूप में थे, तो रावण भी मनुष्य के ही रूप में था। फिर एक के प्रति पूजा का भाव और दूसरे के प्रति घृणा का भाव क्यों है ? शरीर के नाते तो दोनों समान थे और दोनों की समान रूप से पूजा होनी चाहिए, दोनों में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। फिर भी दोनों में जो महान् अन्तर है, वह उनके जीवन का अन्तर है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है चत्तारि परमंगणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ -उत्तराध्ययन ३/१ मनुष्य होना उतनी बड़ी चीज नहीं, बड़ी चीज है, मनुष्यता का होना । मनुष्य होकर जो मनुष्यता प्राप्त करते हैं, उन्हीं का जीवन वरदान रूप है। केवल नर का "आकार तो बन्दरों को भी प्राप्त होता है । हमारे यहाँ एक शब्द आया है- 'द्विज' । एक तरफ साधु या व्रतधारक श्रावक को भी द्विज कहते हैं और दूसरी तरफ पक्षी को भी द्विज कहते हैं। पक्षी पहले अण्डे के रूप में जन्म लेता है। अंडा प्रायः लुढ़कने के लिए है, टूट-फूट कर नष्ट हो जाने के लिए है। जब वह नष्ट न हुआ हो और सुरक्षित बना हुआ हो, तब भी वह उड़ नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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