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________________ सत्या दर्शन / ९५ जो डाला जा रहा है, वह तो बाहर की ही वस्तु हो सकती है और इस कारण हम समझते हैं कि वह विजातीय पदार्थ है। विजातीय पदार्थ कितना ही घुल-मिल जाए. आखिर उसका अस्तित्व अलग ही रहने वाला है। वह हमारी अपनी वस्तु हमारे जीवन का अंग नहीं बन सकती । मिश्री डाल देने से पानी मीठा हो जाता है। मिश्री की मिठास पानी में एकमेक हुई सी मालूम होती हैं और पीने वाले को आनन्द देती है, किन्तु क्या कभी वह पानी का स्वरूप बन सकती है ? आप पानी को मिश्री से अलग नहीं कर सकते, किन्तु एक वैज्ञानिक बन्धु कहते हैं कि मीठा, मीठे की जगह और पानी पानी की जगह है। दोनों मिल अवश्य गए हैं और एकरस प्रतीत होते हैं, किन्तु एक विश्लेषण करने पर अलग-अलग हो जाएँगे । इसी प्रकार अहिंसा, सत्य आदि हमारे जीवन में एक अद्भुत माधुर्य उत्पन्न कर देते हैं, जीवनगत कर्त्तव्यों के लिए महान् प्रेरणा को जागृत करते हैं, और यदि यह चीजें पानी से मिश्री की तरह विजातीय हैं, मनुष्य की अपनी स्वाभाविक नहीं हैं, जातिगत विशेषता नहीं है, तो वे जीवन का स्वरूप नहीं बन सकतीं, हमारे जीवन में एकरस नहीं हो सकतीं। सम्भव है, कुछ समय के लिए वे एकरूप प्रतीत हों, फिर भी समय पाकर उनका अलग हो जाना अनिवार्य होगा ।. निश्चित है कि हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण सन्देश बाह्य तत्वों की मिलावट से पूरा नहीं हो सकता । एक वस्तु दूसरी को परिपूर्णता प्रदान नहीं कर सकती। विजातीय वस्तु किसी भी वस्तु में बोझ बन कर रह सकती है, उसकी असलियत को विकृत कर सकती है, उसमें अशुद्धि उत्पन्न कर सकती है, उसे स्वाभाविक विकास और परिपूर्णता एवं विशुद्धि नहीं दे सकती । इस सम्बन्ध में भारतीय दर्शनों ने और जैन दर्शन ने चिन्तन किया है। भगवान् महावीर ने बतलाया है कि धर्म के रूप में जो प्रेरणाएं दी जा रही हैं, उन्हें हम बाहर से नहीं डाल रहे हैं। वे तो मनुष्य की अपनी ही विशेषताएँ हैं, अपना ही स्वभाव हैं, निज का ही रूप हैं । वत्थुसहावो धम्मो । अर्थात् - धर्म आत्मा का ही स्वभाव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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