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________________ ९४ / सत्य दर्शन दुःख और सुख का यह अनिवार्य चक्र मनुष्य के लिए अत्यन्त बोधप्रद है। इससे वह समझ लेता है कि जैसे मेरे जीवन में सुख-दुःख का महत्त्व है, उसी प्रकार अन्य प्राणियों के जीवन में भी। जब मनुष्य दुःख से पीड़ित होता है, वेदना से छटपटाता है, तो उसे उस दुःख से बड़ी भारी प्रेरणा मिल जाती है। उसे कल्पना होती है कि जैसे आज मैं दुःखों से छटपटा रहा हूँ, इसी प्रकार मेरे आसपास के लोग भी पीड़ा से क़राहते होंगे। और दुःख से छटपटाते हुए मुझे जैसे सहायता की आवश्यकता है, वैसे ही दूसरों को भी सहायता की आवश्यकता होती है। मेरे ही भाँति वे भी दूसरों के सहयोग की अपेक्षा रखते हैं । इस प्रकार सुख और दुःख व्यक्ति के जीवन को समष्टि के साथ जोड़ने की प्रेरणा देते हैं । इस प्रेरणा को पाकर मनुष्य अपने संकीर्ण एवं क्षुद्र अहंकार की परिधि को तोड़कर विशाल प्राणी-जगत् में प्रवेश करता है और अपने अहंत्व को दूसरों के लिए निछावर कर देता है । इसी प्रकार तुम सुख और आनन्द में हो, तो तुम्हें सोचना है कि जैसे सुख मिलने मुझे प्रसन्नता हो रही है, वही प्रसन्नता सुख मिलने पर दूसरों को भी होती है। भूख में रोटी मिलने पर और प्यास में एक गिलास पानी मिलने पर, जैसी प्रसन्नता मुझे होती है मेरा मन जैसा आनन्द-विभोर हो जाता है, उसी प्रकार दूसरों को भी सुखानुभव होता है। इस प्रकार सुख और दुःख मनुष्यता की भेंट करते हैं । आखिर, मनुष्य-जीवन का संदेश क्या है ? वह सन्देश शास्त्रों में से निकल कर नहीं आता है। आखिर, वह तो जीवन को समझने की कला है। मनुष्य सुख और दुःख के गज से नाप कर जब अपने जीवन को समझ लेता है, और जब उसी गज से वह संसार को नापता है, तो उसकी इन्सानियत, जो छोटे से घेरे में घिरी थी, विशाल और विराट रूप ले लेती है। मानवता का यह विराट रूप ही मानव-धर्म कहलाता है । आज तक जो भी धर्म आए हैं और जिन्होंने मनुष्य को प्रेरणाएँ दी हैं, न समझिए कि उन्होंने जीवन में बाहर से कोई प्रेरणाएँ डाली हैं। यह एक दार्शनिक प्रश्न है कि हम मनुष्यों को जो सिखाता है और प्रेरणा देता है, जो हमारे भीतर अहिंसा, सत्य. दया एवं करुणा का रस डालता है और हमें अहंकार के क्षुद्र दायरे से निकाल कर विशाल - विराट् जगत् में भलाई करने की प्रेरणा देता है, क्या वह बाहर की वस्तु है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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