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नारी का मन : २१
सुलसा की दृष्टि में देव अरिहन्त, गुरु निर्ग्रन्थ और दयामय धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा भावना थी । परीक्षा में वह सफल रही । दशवै० ० अ० ३, नि० गा० १८२/
जीवन के उत्थान - पतन की कहानी !
चम्पा नगरी में सोम, सोमदत्त और सोममूर्ति तीन सहोदर भाई थे। उनके नागश्री, भूतश्री और यक्षश्री तीन पत्नियाँ थीं । एक दिन भोजन बनाने की बारी नागश्री की थी। भूल से उसने कड़वा तू बा बना लिया। परिजनों की निन्दा के भय से उसने धर्मघोष के शिष्य धर्मरुचि अणगार को दे दिया। मुनि ने जीवों की दया सोचकर उस विषाक्त तूबे को डाला नहीं, खा लिया । धर्मरुचि मुनि के मरण के कारण को सुनकर नगर के लोगों ने नागश्री को धिक्कारा और घर वालों ने भी उसे निकाल दिया । आर्त एवं रौद्र ध्यान के कारण वह मरकर नरक में गई ।
नागश्री का जीव अनेकों जन्मों के बाद चम्पा नगरी वासी सागरदत्त सार्थवाह की पत्नी भद्रा की कूँख से पत्नी के रूप में जन्मा । नाम रखा – सुकुमालिका । वह सुन्दरी थी, रूपवती थी, परन्तु विषकन्या थी । जिनदत्त सार्थवाह के रूपवान् पुत्र सागर ने उसके साथ विवाह किया, पर शीघ्र ही उसे छोड़ दिया। फिर एक दरिद्र के साथ उसका विवाह किया, वह भी सुकुमालिका को छोड़कर भाग गया ।
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