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________________ मृगा पुत्र जीव अपने कर्मों का फल पाता है। वह जैसा भी कर्म करता है, वैसा ही फल उसे मिल जाता है। कर्म का सिद्धान्त अटल एवं अचल है। उसके अतिक्रमण करने की शक्ति किसी में भी नहीं है। दारुण कर्म का फल भी दारुण ही होता है । अपना उत्थान और पतन करने में जीव स्वतन्त्र है। वह ऊँचा भी उठ सकता है, और नीचे भी गिर सकता है । जम्बुद्वीप के भरत-क्षेत्र में शतद्वार एक नगर था। वहाँ पर राजा धनपति राज्य करता था। शतद्वार नगर के अग्निकोण में विजय वर्धमान एक ग्राम था, वहाँ इकाई राठौर एक ठाकुर था। वह पाँच-सौ ग्रामों का अधिपति था। वह प्रकृति से कठोर, स्वभाव से क्रूर और हृदय से दुष्ट प्रकृति का था। अपने पाप को भी वह पुण्य समझता था। इकाई ठाकुर प्रजा का उत्पीड़न करता था। अन्याय से धन एकत्रित करता था। चोरी और लूट भी करता था। प्रजा को त्रास देना ही उसका धर्म था ! पाप का घड़ा जब भर जाता है, तब फूट जाता है। ठाकूर के पापकर्म का उदय आ चुका था। उसके देह में एक साथ सोलह महा रोग उत्पन्न हो गए। वैद्यों को मुंह माँगा धन देने की उद्घोषणा करने पर भी कोई वैद्य उसके एक भी रोग को शान्त नहीं कर सका। पापी मर कर भी चैन नहीं पाता। इकाई मर कर रत्न प्रेभा में नारक रूप में वेदना भोगने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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