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अन्तर की आँखें
बाहर की आँखों का क्या, आँखें अन्तर की खोलो । हर प्राणी में छुपा महेश्वर, कर दर्शन निर्मल हो लो। कटुता का व्यवहार किसी से, कभी भूलकर मत करना । मन, वाणी, कर्मों में प्रतिपल, बहे प्रेम का मधु झरना ॥
नव चेतना
घिसी - पिटी बातों में उलझे, रहने वालो, क्या पाओगे ? नई रोशनी देख न पाएतो तुम जग से मिट जाओगे ॥ नयी चेतन, नयी स्कूर्ति से, नये कर्म का पथ अपनाओ । मरने पर क्या जीते-जी ही, स्वर्ग धरा पर ला दिखलाओ ।
अन्तर् की आँखें :
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