SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ झटपट पीछे से एक तेज सवार भेजकर उसे वापस बुलवाया और घोड़े पर इस प्रकार उलटे सवार होने का कारण पूछा। उसने बड़ी ही संजीदगी से उत्तर दिया-"हुजूर ! मुझ से पहले तीन आदमी वहाँ काम करने के लिए भेजे गए और वहाँ पहुँचते ही झटपट बिना किसी कारण के वापस बुला लिए गए। इसलिए मुझे भी डर था कि मैं चल तो रहा हूँ, पर मुझे भी वापस बुलाने के लिए पीछे से परवाना आता ही होगा ? उस परवाने के इन्तजार में ही मैं घोड़े पर महल की तरफ मुंह किए बैठा था !" __नवाब साहब अपनी अस्थिर चित्तता पर बहुत ही लज्जित हुए। इसके पश्चात फिर कभी उन्होंने अपना निर्णय बदलने में इतनी शीघ्रता नहीं की। खूब मिले! पाँच आदमी एक जगह बैठे इधर - उधर की गप्प लड़ा रहे थे। एक था बहरा, दूसरा था अंधा, तीसरा था लंगड़ा, चौथा था लूला और पाँचवाँ था कंगाल-पूरा दरिद्र नारायण । अचानक बहरा बोला-"मुझे ऐसा सुनाई पड़ता है कि चोर आ रहे हैं।" इस पर अंधा बोला-"कुछ दिखाई तो मुझे भी ऐसा ही दे रहा है।" लंगड़ा डर कर बोला- "चलो, यार भाग चलें।" इस पर लूले को जोश आ गया- "मैं पकड़ लूगा बेई. मानों को।" कंगाल गुस्से में चिल्ला उठा--- "अरे, क्या तुम सब मिलकर मुझे लुटबाओगे ?" ५६ सागर के मोती: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003422
Book TitleSagar ke Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy