SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राक्कथन ज्योति - पुरुष पूज्य गुरुदेव उपाज्याय श्री अमर मुनिजी महान् सन्त एवं दार्शनिक हैं, इतना ही नहीं, गहन विचारक भी हैं। उनके चिन्तन की धारा अन्तर् की गहराई से उद्भूत होकर प्रवहमान है। वस्तुतः वह आत्मज्योति से अप्लावित पावन त्रिवेणी है और है सहज - स्वर्भावक । वह पीयूषवर्षी धारा बिना किसी दबाव के अनायास ही, सहज स्वभाव से ही प्रवहमान है। जिसने उनकी दिव्य लेखनी का अध्ययन - अनुशीलन किया है, उनकी ज्योतिर्मय वाणी को सुना है, उसने दर्शन किया है, उसने साक्षात्कार किया है, चिरन्तन सत्य का । सत्य, सत्य है। वह न तेरा है, न मेरा। सम्प्रदायों के, पंथों के, परम्परागत मान्यताओं के जहर से मुक्त । रूढिवादी अकल्याणकारी परम्पराओं के तटों से पूर्णत: उन्मुक्त। किसी भी तरह की क्षुद्र प्रतिबद्धताओं की बेड़ियों के बन्धन से पूर्णतः अबद्ध । ताजा, सुगन्धित, सदासर्वदा न तन और शुद्ध - विशुद्ध जीवन की कल - कल, छल - छल बहती सहस्र रूपा अमृत - स्रोतस्विनी है, सत्य की उज्ज्वल धारा । यह है पूज्य गुरुदेव की अन्तर् - ध्वनि से, आत्म - चिन्तन से उद्भूत साहित्य सागर, अक्षय क्षीरोदधि । प्रस्तुत पुस्तक-इस अमृत पयोनिधि का एक जलांश है, जल - कण है, परन्तु है अथाह सागर का ही प्रतिरूप । क्षीरोदधि की एक नन्ही-सी बूद क्षीर - सागर से भिन्न नहीं है और क्षीरसागर भी बूद से भिन्न कहाँ है। इसलिए बून्द सागर में समाहित है और सागर भी बूद में । अतः उस महोदधि के परिसूचक विचार जीवन के [ ३ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003422
Book TitleSagar ke Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1991
Total Pages96
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy