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अमृतयोगी सन्त
भगवान महावीर
एक सन्त अपने-आप में में एक चरवाहे ने उनसे कहाभयंकर सर्प रहता है। उसकी विषैली फुफकार से कौन कहे, पशु-पक्षी भी जीवित नहीं रह सकते दूसरे पथ से जाइए । '
।
मगन कहीं चले जा रहे थे । मार्ग 'महाराज ! इस पथ में तो एक
सन्त ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं । वे चुप चाप उसी मार्ग से चलते रहे, और सीधे सर्प के द्वार पर जा कर खड़े हो गए । आज उनके अन्तर्मन में विष को अमृत विलक्षण कामना जाग उठी थी ।
बनाने को एक
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मनुष्य की तो अतएव आप
थोड़ी देर के पश्चात् सर्प विषैली वायु के बादल उड़ाता हुआ बाँबी से बाहर निकला। वह आश्चर्य में था कि 'यह कौन है, जो मेरे सिर पर ही आकर खड़ा हो गया है। क्या इसे मृत्यु का भय नहीं है ?"
सर्प ने क्रोध में आकर सन्त के पैरों में डंक मारा, किन्तु सन्त फिर भी शान्त थे, आत्म प्रसन्नता की अमृत लहरों में तैर रहे थे । कुछ देर विष और अमृत का यह द्वन्द्व युद्ध चलता रहा । आखिर अमृत ने विष पर विजय प्राप्त की ।
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